Sunday, January 28, 2018

३४ कट्टरता और विवेकधर्मिता

एक बार एक आर्य-समाजी व्यक्ति व्यर्थ ही टेम्बे स्वामी से वाद विवाद करने चला आता है, उसकी वेद्विक व आध्यात्मिक पात्रता न होने के कारण श्री स्वामी मौन धारण कर लेते है.
स्वामीजी के मौन से चिडकर वह आर्य-समाजी व्यक्ति उलटे-सीधे बोल बोलने लगता है. इस पर श्री स्वामी शांतिपूर्वक उससे कहते है, “अगर हम पर आपका इतना ही रोष है तो आप हमारी पिटाई करके अपना चित्त शांत कर लीजिये.”
इस पर वह अल्पबुद्धि आर्य-समाजी सच में ही श्री स्वामी पर हात उठाने आगे बढ़ जाता है, पर दत्तप्रभु की प्रेरणा से यह विवाद देख रही एक महिला जोर-जोर से चिल्लाकर अपना विरोध प्रकट  करती है.
उस महिला की आवाज सुनकर और भी शिष्य व भक्तजन आकर अपनी खबर ले लेंगे इस डर से वह आर्य-समाजी भाग खड़ा होता है.

३३ हर हर नर्मदे


हिमालय में अपना दो वर्षों का अज्ञातवास व्यतीत करके टेम्बे स्वामी ब्रह्मावर्त पहुंचे. उस समय नर्मदा माता को भी लगा जैसे स्वामीजी गंगा किनारे वास कर रहे है वैसे ही वे उनके तट पर भी आकर वास करें.

तीर्थी कुर्वन्ति तीर्थानि स्वान्त: स्थेन गदाभृता

शास्त्र के इस वचन के अनुसार स्वामीजी उस कोटि के संत थे जो अपने ह्रदय में व्याप्त परमात्मा के कारण तीर्थों को भी पवित्र बनाते है.
गंगाजी ने  भी पृथ्वी पर आने से पहले राजा भगीरथ से प्रश्न करा था कि गंगा स्नान करने वाले लोगों के धुले हुवे पापों को वे कहाँ जाकर धो पायेगी ?
इस पर भगीरथ ने उत्तर दिया था :-

साधवो न्यासिनः शान्ता ब्रह्मिष्ठा लोकपावनाः
हरन्ति अघं ते अंगसंगात् तेष्वास्ते ह्यघभित् हरिः ||

शांत स्वरुपवाले, ब्रह्मनिष्ठ और लोगों को पवित्र करने वाले साधु सन्यासी अपने अंग स्पर्श से तुम्हारे पाप नष्ट कर देंगे क्योंकि उन लोगों में पाप का विनाश करने वाले भगवान बसते है.

३२ मर्म का महत्त्व

श्री टेम्बे स्वामी से वेदांत श्रवण करने का महाभाग्य जिन महानुभावों को मिला उनमें बड़ोदा के राम शास्त्री प्रभाकर का नाम प्रमुखता से लिया जाता है. शास्त्रीजी अध्ययन हेतु अपने मामा के यहाँ शिनोर में रहते थे. वे सिर्फ १८ वर्ष के ही थे जब प्लेग के कार उनके पिताश्री की मृत्यु हो जाती है.
पिताजी का साया उठ जाने से शास्त्रीजी बहुत ही निराश हो जाते है और इस कार से वे गृह त्याग करने का मानस बना लेते है.
तभी उनके स्वप्न में एक सन्यासी आकर उनसे कहते है, “ अरे, आप अगर वन में चले जायेंगे तो आपकी माँ कितने दुखो को प्राप्त होगी ? इस बात का विचार भी किया है या नहीं ?
जब कर्दम ऋषि वन में गए थे तब उनके पुत्र कपिल मुनि भी अपनी माँ को त्याग कर वन में नहीं गए वरन उन्होंने अपनी माँ को अध्यात्म उपदेश देकर शोक रहित किया.
संन्यासी जी आगे कहते है, “मात्रे अध्यात्मनिवेदनम्  (माता को अध्यात्म निवेदन किया)

31 सद्गुरु कृपा का महत्त्व


टेम्बे स्वामी के योगमार्गी शिष्यों में एक प्रमुख शिष्य श्री गांडा महाराज (.पू. श्री योगानंद सरस्वती ) थे, तेलंगपुर के ये गुजराती ब्राह्मण बचपन से ही विरक्त स्वभाव के थे और सद्गुरु की खोज में नर्मदाजी के किनारोंपर भटक रहे थे. यद्यपि उनका बाल विवाह हुवा था फिर भी गृह त्याग कर सद्गुरु की खोज में भटकने के कारण उन्हें लोग ब्रह्मचारी कहते थे.
एक ब्राह्मण सद्गुरु मिले ऐसी उनकीमनोकामना थी.
नर्मदाजी के तट पर वास करने वाले पांडुरंग महाराज नामक एक सत्पुरुष की आज्ञा से वे नेमावर -जो की माँ नर्मदा का नाभि स्थलहै- में जप-अनुष्ठान करने लगे थे.
इसी दौरान श्री स्वामी की कीर्ति उनके कानों में पड़ती है और वे टेम्बे स्वामी से मिलने शिनोर चले आते है.
उनके आने से पहले ही अंतर्ज्ञानी टेम्बे स्वामी रामशास्त्रीजी से कहते है,” जल्दी ही यहाँ एक भटकने वालाअक्षर शत्रुव्यक्ति आने वाला है. ”
गांडा महाराज के आने पर तो ८ दिनों तक श्री स्वामी बात तक नहीं करते है, परगांडा महाराज भी अपनी धुन के पक्के थे.

३० निर्गुण भक्ति और सगुण भक्ति

सदियों से ईश्वर प्राप्ति के लिए निर्गुण भक्ति वसगुण भक्ति के उपासकों में मतभेद रहा है, ये दोनों मार्ग ईश्वर की तरफ ही लेजाते है पर इनके साधक अपने-अपनेमार्ग को ही विशेष बतलाते है.
अगर एक पतिव्रता नारी जिसका पति परदेश गया है, वह अपने पति के फोटो को अपने माथे  से लगाकर नमन करती है तो वह असल में किसे नमन करती है? वह फोटो तो उसके पति नहीं है क्योंकि पति तो परदेश में है; अगर वह फोटोतोएक कागज है तो फिर वही कागज क्यों ? घर में अन्य कागजों की रद्दी क्या कम होती है ?
इसका सरल उत्तर यह है कि वह फोटो उस महिला के ह्रदय में उसके पति के प्रति उत्कट भाव जगाते है, जिसे अन्य कागज नहीं जगा सकते है. इस तरह फोटो तो सिर्फ एक साधन होता है, वह महिला भक्ति तो अपने पति की ही करती है.

२९ कर्ममार्ग का महत्त्व


टेंबे स्वामी कर्ममार्ग के प्रवर्तक थे. कर्ममार्ग के यथायोग्य पालन से मन व इन्द्रियों को संयमित किया जाता है, जिसके फलस्वरूप मनुष्य कीकामनाये नियंत्रित होकर व्यवसाय-आत्मिका बुद्धि (परम तत्व ईश्वर की ओर ले जाने वाली बुद्धि ) जागृत होती है और मनुष्य अध्यात्मिक उन्नति की राह पर चलने लगता है. सरल भाषा में इसे कहा जाए तो अपने धर्म का पालन करना ही अपेक्षित कर्म होता है. यहाँ धर्म से तात्पर्य मजहब या रिलिजन नहीं है, क्योंकि जब गीता कही गई थी तब भारतवर्ष में सिर्फ सनातन धर्म ही था. यहाँ धर्म से तात्पर्य वर्णाश्रम धर्म से है, अपने-अपने वर्ण (ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य व चतुर्थ वर्ण) व आश्रम (ब्रह्मचर्याश्रम, गृहस्थाश्रम, वानप्रस्थाश्रम व सन्यासाश्रम ) के अनुसार शास्त्र विहित कर्म करना ही धर्म का पालन करना है.

२८ गीता के भगवद्-वचन की प्रचिति


प्रसंग १:

नरसी गांव में दोपहर के समय एक महिला किसी कारणवश नदी के तट पर जाती है, तब उसे टेंबे स्वामी अपने गोद में एक ६ महीने के शिशु को लेकर बैठे हुवे दिखते है, वह शिशु अपना अंगूठा चूसते हुवे श्रीस्वामी को प्रसन्नभाव से निहार रहा था और स्वामीजी भी उसे प्रेम पूर्वक दृष्टि से मानोंप्रति उत्तर दे रहे थे;यह देखकर वह महिला भी अपना कार्य भूलकर अचरज भरी दृष्टि से दर्शनलाभ लेती रहती है.
जब श्री स्वामी को उस महिला की उपस्थिति का भान होता है, तब वह शिशु अंतर्धान हो जाता है, वह महिला भी भावावेश से बेसुध हो जाती है.श्री स्वामी उस महिला पर पानी के कुछ छीटे मारकर उसे जागृत करते हैऔर उसे भाग्यवान बताते है क्योंकि उसने साक्षात दत्त प्रभु के दर्शन सहज ही कर लिए थे.
ग्वालियर के पास छाबड़ा नामक गाँवके राम मंदिर में प.पु, नाना महाराज ने भी ऐसे ही सहजता से राम,लक्ष्मण और जानकी को मंदिर के पुजारी के साथ गुल्ली-डंडा खेलते हुवे देखा था.

प्रसंग २:

२७ विद्रोही भक्त पर भी कृपा


हमारे समाज में अनेक व्यक्ति धर्मगुरु बनकर समाज में अपना वर्चस्व स्थापित कर सुख-सुविधा युक्त अत्यंतसम्मानजनक जीवन व्यतीत करना चाहते है, इन लोगों की आध्यात्मिक उन्नति शून्य होती है पर ये अपने दिखावे से समाज को अपनी झूठीश्रेष्ठता का आभास करवाते है और मौका मिलने अपनेस्वार्थ पूर्ति के लिए पर समाजके लोगों का शोषण करने से भी नहीं चुकते है ; ऐसे ही लोगोंको भोंदू बाबा कहा जाता है.
ये भोंदू बाबाबड़े लम्बे समय से संतों व सज्जनों को परेशान करते आये है, चाहे संत तुकाराम को परेशान करने वाले मंबाजी हो या आदि शंकराचार्यपर अभिचार प्रयोग करने  वाला अभिनव गुप्त, आजकल जहां देखो ऐसे भोंदू बाबाओं की कमी नहीं है.

२६ प्रेतबाधा से मुक्ति


इंदौर शहर में दाजी देशपांडे नाम के एक सज्जन रहते थे. उनके दो पुत्र  थे. पर उनकी पत्नी को ब्राह्य बाधा अर्थात कुछ प्रेतादि आत्माओंका साया पडगया था. आज का चिकित्सा विज्ञान न तो इन बातों को मानता हैऔर नहीं उसके पास इन समस्याओं का कोई इलाज है, पर डिस्कवरी जैसी वाहिनियो ने भी अपने कार्यक्रमों में ऐसी शक्तियों को नकारा नहीं है.
अगर कोई श्रीक्षेत्र गाणगापुर,जो कि ब्राह्यबाधा निवारण करने का सर्वोच्च स्थान है-जाकर देखता है तो उसे सहज ही इन शक्तियों के अस्तित्व पर विश्वास करना ही पड़ेगा.अगर सामान्य आदमी थोडा सा भी गिर जाता है तो उसे चोट लग जाती है, कभी-कभी हड्डीया तक चटक जाती है, खरोंचे लगती है, रक्त की धारायें बहना शुरू हो जाती है; पर वहाँ गाणगापुर में ब्राह्यबाधा से पीड़ित व्यक्ति जोर-जोर से अपन सर जमींन पर पटकते है, उँचाई से नीचे कूदते है, और भी न जाने क्या-क्या करते है, पर उन्हें जरासी भी चोट नहीं लगती है, उनके खून का एक क़तरा तक नहीं बहता है, हड्डीया चटकना तो दूर की बात होती है.
ये ब्राह्य शक्तिया अपने पिछले जन्मो के लेन-देन और प्रतिशोध की भावना से ही कुछ पूर्व-संबधित व्यक्तियों को पीड़ित करती है.

२५ भक्ति का वाहन और चालक सतगुरु


श्रीस्वामी की आज्ञा से नाना महाराज अनेक तीर्थयात्रा  करते है, उनका मन श्रीस्वामी के चरणों के दर्शन के लिए लालायित हो उठता था पर गुरु की आज्ञा के बिना यह संभव नहीं था. श्रीस्वामी के समाधि लेने के बाद नाना महाराज खिन्न हो उठते है, उन्हें  श्रीस्वामी के दर्शन से वंचित रह जाने का अपार दुःख होता है.
आखिर श्रीस्वामी के समाधि लेने के कुछ वर्षों बाद उन्हें आखिरसद्गुरु की पुण्यतिथि के निमित्त गरुडेश्वर आने की आज्ञा मिल ही जाती है. इसके लिए वे इंदौर आकर अपने गुरु बंधु श्रीताम्बे स्वामी के यहाँ उतरते है. ताम्बे स्वामी उनका यथा योग्य स्वागत करते है. दोनों गुरु बंधु प्रसन्न भाव से भजनादि में इतना रम जाते है कि इंदौर स्थानक से उनकी रेलगाड़ी छूट जाती है.

२४ निर्विकल्प भक्ति से सद्गुरु की प्राप्ति


होलकर संस्थान के अंतर्गत आने वाले तराना गाँव (आज के मध्य प्रदेश में उज्जैन जिले के अंतर्गत आने वाला एक गाँव ) में एक शंकरशास्त्री नाम के एक वेदांती विद्वानरहते थे, जो एक वेद शाला भी चलाते थे. शास्त्री जी विरागी और सदाचारी व्यक्ति थे. उनकी गायत्री व दत्त प्रभु की उपासना थी. नागपंचमी के दिन शास्त्री जी को एक पुत्र रत्न की प्राप्ति होती है, बालक का नाम मार्तंड रखा जाता है. उज्जयिनी में सन्यास दंड लेने से पहले श्री स्वामी तराना गाँव आते है, और शंकर शास्त्री को अनुग्रह भी देते है.
कुछ समय के लिए श्री स्वामी का वास्तव्य शास्त्री जी के गृह पर होता है.बालक मार्तंड स्वयं श्रीस्वामी के पास जाकर बैठता था, स्वामीजी भी बालक से अत्यंत स्नेह रखते थे. उत्तर दिशा की तरफ प्रस्थान करने से पहले श्रीस्वामी बालक मार्तंड, जो उस समय ५ वर्ष का था, को आशीष देकर अपने गंतव्य को जाते है.
पर यह बालक कुछ अलग साथा, खेलने में उसका मन नहीं रमता थापर बालक मार्तण्ड् की अभ्यास में अत्यंत रुचि थी और वह मन लगाकर अध्ययन करता था,  भजन और नाम स्मरण में भी बालक अत्यंत आनंदित रहता था.
बालक मार्तंड को असत्य से बड़ी घृणा थी और वह हमेशा से ही सत्य धर्म का पालन करता था. एक दिन पाठशाला के प्रधानाध्यापक उसे असत्य बोलने के लिये विवश करते है, पर यह बालक पाठशाला छोड़ देता है पर असत्य-वदन करना स्वीकार नहीं करता है.
11 वर्ष की आयु से ही बालक मार्तंड को गुरु कृपा की तीव्र तृष्णा लगती है. वह् अपने पिता से (जो अनेक लोगों को अनुग्रह दे चुके थे ) अनुग्रह देने का निवेदन करता है.
शंकर शास्त्री कहते है, “ मैंतुम्हें अनुग्रह नहीं दे सकता हूँ क्योंकि तुम्हारा गुरु कोईऔर है, यही दत्तप्रभू का आदेश भी है.”
गुरु प्राप्ति के लिए बालक मार्तंड (जो उस समय केवल 11 वर्ष का था )ग्रंथ राज गुरुचरित्र के पठनका निश्चय करता है.
एक कमरे को गोमय से लीपकर तैयार किया जाता है, वहाँ दत्तमहाराज की एक मूर्ति प्रस्थापित की जाती है.
सुबह स्नान-संध्यादि से निवृत्त होकर बालक मार्तंड गुरुचरित्र सप्ताह के लिए बैठता है, फल,फुल,गाय के दूध और घी की कटोरियाँसामने रखी जाती है.सामने एक रिक्त आसन भी सद्गुरु के लिए रखा जाता है. एकान्त के उद्देश से पाठ करने से पूर्व कमरे की अन्दर से कुण्डी लगा ली जाती थी. पाठ के दौरान बालक मार्तंड सिर्फ एक समय का अल्पाहार दोपहर में लेता था.
इस तरह पहला साप्ताहिक पाठ हो जाता है और उसकी यथा सांगसांगता भी हो जाती है.
अगले दिन बालक अपने दूसरे साप्ताहिक पाठ का पठन शुरू कर देता है. इस बार अल्पमात्रा में  दिन में एक बार का फलहार ग्रहण किया जाता है, इस पाठ के पूरेहोने के अगले दिनही तीसरे पाठ की शुरुवात कर दी जाती है.
तीसरा पाठ भी हो जाता है, पर सद्गुरु का कोई पता नहीं था,  इसलिए अगले दिन चौथे पाठ का श्रीगणेश कर दिया जाता है.
यह पाठ सिर्फ अल्पमात्रा में गाय का दूध पीकर किया जाता है.बालक मार्तंड, संत नामदेव की तरह प्रतिबद्ध था,दत्त भगवान ‘या तो तारो या फिर मार ही डालो’ ऐसी उसकी भावना थी.
पर इस पाठ में भी सद्गुरु की प्राप्ति नहीं होती है, इसलिए तुरंत ही पाँचवाँ पाठ आरम्भ कर दिया जाता है.
पाँचवाँ पाठ भी पूरा हो जाता है पर उद्देश्य अप्राप्त ही रहता है, इसलिए छटे पाठ की शुरुवात हो जाती है. यह पाठ सिर्फ तुलसीपत्र केभक्षण पर किया जाता है, पर सफलता का अभी भी दूर-दूर तक कोई पता नहीं था. छटे पाठ से भी सद्गुरु की प्राप्ति नहीं होने से सातवाँ पाठ भी शुरू कर दिया जाता है. यह पाठ भी केवलतुलसी दल के भक्षण पर किया जाता है.
इससे बालक को अत्यंत दुर्बलता आजाती है, पर बालक अपनी धुन का पक्का था, उसकी जिह्वापर सतत दत्त नाम रहताथा.
यह कोई आसान तपस्या नहीं थी, जरा सी भी क्षुधा व तृष्णा के बढ़ते ही मनुष्य को क्रोध आ जाता है. सिर्फ साधारण मनुष्यों की तो छोड़िये, परीक्षित राजा जैसे धर्मात्मा पुरुष भी इन्हीं क्षुधा व तृष्णा के आवेग के प्रभाव सेमहर्षि-अपमान जैसा प्रमाद कर बैठते है.
पर बालक मार्तंड को तो अर्जुन की तरह लक्ष्य प्राप्ति के सिवा कुछ और तो दिख ही नहीं रहा था. बालक मार्तण्ड् के तो त्रिविध प्रकार के तप घटित होते जाते है. आखिर सातवें सप्ताह का अंतिम दिन आता है, यह कार्तिक मास की पूर्णमासीकी तिथि थी, दिन के बारह बज जाते है और मध्यान्न का सूर्य  एकदम मस्तक के ऊपर आ जाता है, ग्रंथराज गुरुचरित्र की आखिरी पंक्ति उद्गारित कर दी जाती है पर सद्गुरु का तो कही से कही कोई पता ही नहीं था. कमरे की कुण्डी अन्दर से लगी रहती है.
कमरे में ही निराश होकर बालक रोने लगता है. उसके आँसुओं का तो मानो सैलाब ही बहने लगता है.तभी उस बालक के कानों पर एक कोमल स्वर पड़ता है, “बालक !”
आँसुओं से डबडबाई आँखों से बालक अपनी दृष्टि उस आवाज की तरफ घुमाता है, सामने सद्गुरु के लिए रखे आसन पर साक्षात टेम्बेस्वामी विद्यमान दिखाई दे रहे थे. दृश्य अद्भुत था, स्वप्न है या जाग्रति है, कुछ क्षणों के लिए तो यह भी समझ में नहीं आ रहा था.
तभी फिर से दूसरा स्वर गुंजायमान होता है, “बालक!..”
अब वह बालक सावधान हो उठता है, श्रीस्वामी प्रत्यक्ष खड़े है इस बात की उसे प्रचिती भी हो जाती है,पर क्या कहना है, क्या करना है इसकी सूझ नहीं पड़ती है.
फिर मधुर स्वर से श्रीस्वामी कहते है, “वत्स, क्यों हमारा पाचारण किया ? इतना कठोर तप करने की क्या जरूरत थी ? तुम्हारे अंतर में क्या अभिलाषा है ?”
अपने करो को जोडकर श्रीस्वामी के चरण कमलों की तरफ दृष्टीक्षेप करकर बालक मार्तंड उत्तर देता है, “ हे ईश्वर  ! सद्गुरु की प्राप्ति हो इसलिए यह यत्न करा था.”
श्रीस्वामी उस बालक को विराजित होने का निर्देश देकर कहते है,” तुम्हारे ह्रदय का हेतु मुझे अवगत है और इसीलिए मुझे ब्रह्मावर्त से दौड़कर यहाँ आना पड़ा.“
ब्रह्मावर्त जिसका दुसरा नाम बिठूर भी है, यह आज कानपुर जिले के अंतर्गत आने वाला एक शहर है.बिठूर से तराना की दूरी लगभग ७०० किलोमीटर है , श्रीस्वामी वहाँ से निमिष मात्र में बालक मार्तंड के आराधन कक्ष में प्रकट हो जाते है.
इसके बाद बालक मार्तंड श्री चरणों को कस कर पकड़ लेता है और सद्गुरु का यथा सांग पुजन करता है.
इसके बाद वह बालक अपने पिता को लिवा लाता है. सुज्ञ शंकर शास्त्री एक ही क्षण में सम्पूर्ण वस्तुस्थिति को समझ जाते है.तत्पश्चात दोनों पिता-पुत्र अपने सद्गुरु की आरती करते है, उन्हें गाय के दूध व घी की कटोरियाँ समर्पित करते है.
श्रीस्वामी संतुष्ट होकर बालक को  “स्वामी भव” ऐसा आशीर्वाद देते है. बाद में अपनी छाँटी को बालक के चारों और लिपटाकर उसके कान में गुरुमंत्र देते है. फिर श्रीस्वामी बालक के भ्रूमध्य में अपनी तर्जनी लगा देते है, बालक मार्तंड निजानंद में डोलने लगता है, बालक मार्तंड उन्मन होकर निर्द्वन्दावस्था में पहुँच जाता है.
कुछ देर बाद श्रीस्वामी बालक मार्तंड के मस्तक को अपने हात से थपथपाकर उसे जागृत करते है.फिर उसके कान में कहते है,” अरे तुम्हें तो बहुत से कार्य करने है, समाधि में नहीं रमना है. दत्त नाम की गर्जना करकर भक्तों के सुप्त-मानसों को जगाना है, दत्त नामका घोष गाना है, जन-साधारण को भक्ति मार्ग पर लगाना है.”
बालक मार्तंड कृतज्ञ भाव से अपनी स्वीकृति दे देता है, और‘आप सदा मेरे ह्रदयकमल में विराजे’ ऐसा निवेदन भी करता है.
इसके बाद ‘तथास्तु ‘ऐसा कहकर श्रीस्वामी अंतर्धान हो जाते है.
अपने पुत्र की कठोर साधना के परिणाम को देखकर शंकर शास्त्री  का भी ह्रदय हर्ष-विभोर हो उठता है.

यही बालक मार्तंड आगे चलकर इंदौर के प्रसिद्ध संत ‘प. पु. श्री नानामहाराज तराणेकर’ नाम से जाने जाते है, और वे अपने संपूर्ण जीवन में अनगिनत लोगों के ह्रदय कमलों में भक्ति की अलख प्रज्वलित कर उनका उद्धार करते है.

२३ प्रकृति पर श्रीस्वामी की सत्ता

उस समय मध्य प्रदेश के सनावद नामक स्थान पर श्रीस्वामी का वास्तव्य था। स्वामीजी के पूर्वाश्रम के पिताजी के श्राद्ध का दिवस था. श्रीस्वामी के साथ उनके पूर्वाश्रम के भाई श्री सीतारामजी और प. पु. योगानंद सरस्वती ( गांडा महाराज ) थे। वे चातुर्मास के दिन थे, श्राद्ध के लिए रसोई  बनानी थी. श्रीस्वामी ने स्पष्ट निर्देश दे रखा था कि रसोई नदी के तट पर न बनाकर गाँव में ही बनाई जाए, पर गांडा महाराज ने आग्रह किया, " अभी कही से भी वर्षा की कोई  संभावना नही दिख रही है, इसलिए रसोई नदी के तट पर ही बनवा लेते है.”
  इस पर श्रीस्वामी मौन रहते है. श्री स्वामी के मौन का अर्थ अकसर नकारात्मक होता था पर इस बात पर श्री गांडा महाराज ज्यादा ध्यान नहीं देते है.

२२ साईबाबा परब्रह्म है

श्रीस्वामी अत्यंत कर्मठ उपासक थे, वेद विद्या व मंत्र विद्या पर उनका पूर्ण अधिकार था. साईबाबा व श्रीस्वामी एक दूसरे को बंधूँ कह कर संबोधित करते थे. एक बार टेंबेस्वामी राजमहेंद्री में ठहरे हुआ थे. वहाँ पर नांदेड से आये हुए पुंडलिकराव वकील व उनके दो मित्र टेंबेस्वामी से मिलने आते है. बातों-बातों में शिर्डी के साईबाबा का उल्लेख  होता है, यह नाम सुनते ही टेंबेस्वामी भावुक होकर बाबा का स्मरण कर हाथ जोड़ते है. सन्यास धर्म के नियमानुसार एक यति ने अपनी माता व गुरु को छोड़कर अन्य किसी को भी प्रणाम नहीं करना चाहिए, इसी कारण पुंडलिकराव और उनके मित्रों को विस्मय होता है. स्वामीजी तुरंत स्पष्टीकरण देते है कि साईबाबा कोई सामान्य व्यक्ति या अवलिया न होकर पूर्ण ब्रह्म नारायण है. पुंडलिकराव वकील साईं भक्त थे, इसीलिए श्रीस्वामी उनसे ‘शिर्डी कब जाओगे ?’ ऐसा पूछते है.

२१ मन चंगा तो कठोती में गंगा

इसवी सन १९१३ में श्रीस्वामी का एक चातुर्मास होलकर संस्थान के अंतर्गत आने वाले श्री क्षेत्र चिखलदा में था. उस दिन श्रावण मास की संकष्ट चतुर्थी थी. भोजन के उपरांत सभी भक्त लोग इकट्ठे बैठे हुवे थे, तभी श्रीस्वामी का वहाँ आगमन होता है.
श्रीस्वामी एक वृतांत सुनाते  है, ‘हम एक बार तेलंगाना गए थे, तब एक विद्यार्थी आकर हमें नमस्कार करता है, और पुछने पर कि नमस्कार किस हेतु से किया, वह बताता है कि पास आ चुकी परीक्षा में उत्तीर्ण होने के हेतु से नमस्कार किया है. हमने उसे फिर ‘भाव फले’ ऐसा प्रत्युत्तर दिया. वह विद्यार्थी संस्कृत की तृतीया परीक्षा में बैठ रहा था, और उसे पहली दोनों परीक्षाओं में पारितोषिक भी मिल चुके थे. हमने उससे आगे पूछा कि पहली दो परीक्षाओं में कौन से ग्रन्थ थे, इस पर वह बताता है कि प्रथमा में रामानुजाचार्य की गीता थी और द्वितीया में माधवाचार्य की गीता थी और इस बार श्रीमत् आदिशंकराचार्यजी की गीता है.’

२० बिना सुयोग सद्गुरु दर्शन नाही

एक स्नातक ब्राह्मण सज्जन एक अच्छे पद पर नियुक्त थे, उनकी श्रीस्वामी में अपार श्रद्धा थी. जरा सी छुट्टियाँ मिली नहीं कि वे श्री चरणों में जाकर अपनी सेवा प्रदान किया करते थे. उनका एक अच्छा मित्र स्वदेशी का आग्रही व्रत धारी था. उस समय देश पराधीन था और स्वतंत्रता के लिए अनेक प्रयत्न चल रहे थे जिसमें विदेशी वस्तुओं का बहिष्कार भी शामिल था.
एक दिन ये स्वदेशी के भक्तब्राह्मण-महोदय से बहस करने लगे, ‘कहिये, स्वामीजी के स्वदेशी के बारे में क्या विचार है ?’
ब्राह्मण महोदय ने अत्यंत प्रांजलतापूर्वक कहा, ‘ स्वामीजी से वाद करने की न तो मेरी पात्रता है और न हि सद्गुरु से वाद करने की कोई पद्धति होती है. उनकी आज्ञा का प्रेम व आदरपूर्वक पालन करना ही मेरा परम व्रत है.'

१९ हार्दिक समाधान ही ईश्वर है

मुंबई में रहने वाले एक सज्जन को अनेक स्थानों पर श्रीस्वामी के दर्शन का सौभाग्य मिल चूका था, सनातन वैदिक धर्म के कई रहस्य उन्हें श्रीस्वामी से ही अवगत हुवे थे. उन्होंने एक बार सोचा कि यह लाभ तो सिर्फ उन्हीं तक सीमित रहेगा, पर अगर पुरोहित लोगों को यह ज्ञान मिले तो समाज के एक बड़े तबके तक यह ज्ञान पहुँचेगा. इस हेतु के लिए वे अपने एक पुरोहित मित्र को साथ लेकर श्रीस्वामी के दर्शन को जाने का मानस बनाते है.
पर पुरोहित जी कहते है:-“अरे श्रीस्वामी तो ठहरे सन्यासी, उनके दर्शन तो सिर्फ चातुर्मास में होंगे, और चातुर्मास तो हमारे लिए  कमाई का समय होता है. इस समय में शहर के बाहर कैसे जाया जा सकता है ? आपको जाना है तो आप अकेले ही चले जाइएगा .”

१८ दवा के साथ दुआ

इसवी सन १९०९ में कन्यागत (हर 12 साल में आने वाला एक पर्व) के समय श्रीस्वामी का वास्तव्य नृसिंहवाड़ी में था. उधर सातारा में एक सज्जन एक अपने पेट दर्द की समस्या से काफी त्रस्त थे, उन्होंने काफी देशी-विदेशी इलाजकरेंथे पर उन्हें कुछ भी फायदा नहीं हुवा था. इन सज्जन के कानों पर जब श्रीस्वामी की कीर्ति पड़ी तो उन्होंने श्रीस्वामी के दर्शनों के लिए आने का निश्चय कर लिया.
रास्ते में उन्हें अनेक तरह के विचार आने लगे कि श्रीस्वामी का सोवला तो बड़ा कड़क होगा और मैं ठहरा द्वितीयवर्णीय महाराष्ट्रियन व्यक्ति, क्या मुझे दर्शन का लाभ होगा भी या नहीं ? अगर हो भी गया तो पुजन आदि करने को मिलेगा भी या नहीं ?

१७ वासुदेवः सर्वम्

श्रीक्षेत्र गरुडेश्वर में एक ही समय अनेक भक्तजन श्रीस्वामी के सम्मुख बैठे हुवे थे.
उस समय श्री स्वामी एक भक्त से पूछते है:-“ आपकी लड़की विवाह योग्य हो गई है न ? कही उसका रिश्ता तय कर दिया है क्या ?”
वह सज्जन कहते है :-“ महाराज, बड़े ही प्रयत्न हम कर रहे है, पर दिन बड़े ही कठिन आ गए है ! कही पर भी कोई अच्छा रिश्ता नहीं दिखता है.”
फिर श्रीस्वामी पूछते है :-“ क्या-क्या प्रयत्न करेहै, जरा हमें भी तो बताओ ?”
वह सज्जन सब विस्तार से बतला देते है.

१६ सद्गुरु चरणों में सब कुछ है

स्वामीजी उस समय गरुडेश्वर थे.बडोदा शहर के समीप होने से वहाँ के अनेक भक्तों को श्रीस्वामी के दर्शन करना अत्यंत सुलभ हो गया था.
चान्दोड़ से एक नाव में बैठकर कुछ बड़ोदा के भक्तजन गरुडेश्वर आ रहे थे.उस नाव में एक विधवा महिला भी थी. नाव में सवार कुछ व्यक्ति जहांनाम स्मरण में लगे हुवे थे, वही कुछ लोग उस विधवा महिला कों बिना किसी कारण जली-कटी बातों से अपमानित करते रहते है.
वह अकेली महिला करती तो भी क्या ? और शिकायत करती तो भी किससे? वह चुपचाप अपना सर झुकाए आँसुभरी आँखेंलिए बैठी रहती है.
आखिर कुछ घंटों बाद नाव आखिर गरुडेश्वर पहुँच ही जाती है, वहाँ पहुँचते-पहुँचते रात हो जाती है.

१५ जैसा अधिकार वैसा उपदेश


उस समय श्रीस्वामी का मुक्काम श्री क्षेत्र नृसिंहवाड़ी में था. स्वामीजी का भिक्षा के बाद का भोजन ब्रह्मानंद स्वामी के मठ की उपरी मंजिल पर होता था. स्वामीजी के भोजन के पश्चात उनकी झूठी पत्तल उठाकर उसके नीचे की जमीन को लिप कर साफ़ करने का पुण्य मिले, इस कारण से वहाँ की स्थानीय महिलाओंकी आपस में अकसर तकरार और झड़पें होती रहती थी, कभी-कभी महिलाओं में तो झगड़े की नौबत आ जाया करती थी.
 ‘पता नहीं मेरे भोजन के पश्चात आज क्या होगा’ इस विचार  से श्रीस्वामी को उन दिनों ढंग से खाना भी खवाता था या नहीं !
एक बार एक दूरस्थ महिला की भी श्रीस्वामी की झूठी पत्तल हटाकर श्रीस्वामी की झुठन साफ़ करने की इच्छा हुई, पर यह कैसे संभव था ? स्थानीय महिलाओं को आपस में जूझते देख वह दूरस्थ महिला चुपचाप दूर खड़ी रहती थी.

१४ हर कार्य का उचित समय होता है

उस समय श्री स्वामी का वास्तव्य श्री क्षेत्र माणगाँव में था. तब एक सज्जन हर शनिवार को सावंतवाड़ी तालुका से स्वामी जी के दर्शन के लिए माणगाँव आते थे,वहाँ पर रविवार के दिन रुकते थे, और सोमवार को तड़के ही उठकर अपने तालुका पहुँचकर अपनी नौकरी में हाजिर हो जाते थे.
पहिले कुछ दिन उन्होंनेस्वामी जी की परीक्षा देखने का मानस बनायाहुवा था.
एक दिन वे बैलगाड़ी से श्री क्षेत्र जाने के बजाय पैदल ही १४ किलोमीटर चलकर माणगाँव पहुँचते है, साथ में एक पात्र में दूध भी रख लेते है.

१३ सर्वज्ञ श्री स्वामी


जब श्रीक्षेत्र हवनुर में स्वामीजी का चातुर्मास था, तब एक अमीर महिला अपने मुनीम के साथ श्रीस्वामी के दर्शन करने आती है. श्रीस्वामी के चरण स्पर्श के बाद मुनीमजी अपनी सेठानी की दारुण समस्या से स्वामीजी को अवगत कराते है-“
स्वामीजी, जब भी सेठानी जी गर्भधारण करती है तब गर्भधारण के ५-६ महीनों के पश्चात उनके पति पर एक रहस्यमय दौरा पड़ता है, पति देव का तो दिमाग ही घूम जाता है, और जब तक बालक जन्म लेकर जीवित रहता है, तब तक दौरा बना ही रहता है; उस बालक के निधन होने के बाद पति देव फिर से सामान्य हो जाते है.
अभी तक ऐसा ३-४ बार हो चूका है, अब फिर से सेठानी जी पेट से है, और पुरानी यादों से उनके प्राण ही सूखे जा रहे है.इस संकट से छुटकारा दिलाने में स्वामी चरण समर्थ है.”