उस समय श्री स्वामी
का वास्तव्य श्री क्षेत्र माणगाँव में था. तब एक सज्जन हर शनिवार को सावंतवाड़ी
तालुका से स्वामी जी के दर्शन के लिए माणगाँव आते थे,वहाँ पर रविवार के दिन रुकते थे, और सोमवार को तड़के ही उठकर अपने तालुका पहुँचकर अपनी नौकरी में हाजिर हो
जाते थे.
पहिले कुछ दिन उन्होंनेस्वामी
जी की परीक्षा देखने का मानस बनायाहुवा था.
एक दिन वे बैलगाड़ी
से श्री क्षेत्र जाने के बजाय पैदल ही १४ किलोमीटर चलकर माणगाँव पहुँचते है, साथ
में एक पात्र में दूध भी रख लेते है.
मन में ऐसा भाव था
कि मैं इतने कष्ट सहकर माणगाँव जाऊंगा पर स्वामी जी इस बात का संज्ञान लेंगे क्या
? अगर स्वामी जी ने संज्ञान लिया तो स्वामी
जी की आध्यात्मिक शक्ति सचमुच प्रबल है ऐसा मानूंगा.
माणगाँव में दत्त
भगवान के सामने पहले से ही अनेक भाविको द्वारा दूध के पात्र रखे हुवे थे,, वही स्वामी
जीदत्त प्रभु की अर्चना में व्यस्त थे.
वह सज्जन चुपचाप
अपना पात्र अन्य पात्रों के साथ रख देते है.
जब नैवेद्य की बारी
आती है तो स्वामी जी खुद आकर उन सज्जन के द्वारा रखा हुआ दुग्ध का पात्र उठा लेते
है, और सज्जन की तरफ स्मितभाव से देखते हुवे
कहते है :-“ श्री (भगवान दत्तात्रेय को ) को यह भोग अच्छा लगेगा.”
उन सज्जन को स्वामी
जी की आध्यात्मिक प्रगति का बोध हो जाता है, और वे आगे से कभी भी सद्गुरु की
परीक्षा न लेने का मानस बना लेते है.
वह सज्जन न्यायालय में
काम करते थे. पहले उन्हें हर काम में कुछ भी नुक्ता-चीनी कर अपनी विशेषता दिखाने
का बड़ा शौक था, पर धीरे-धीरे स्वामी दर्शन व सत्संग-श्रवण से उनकी वह भावना भी
जाती रही.
अब उन्हें कचहरी के
काम से उब होने लगी थी, उनका मन वैराग्य में डूबने लगा था, उनका मानस नौकरी से राजीनामा देकर पूर्णतः: वैराग्य में
रमने का बन गया था.
एक शनिवार को वे श्री
स्वामी के पास पहुँचकर अपना मनोगत व्यक्त करते है.
श्री स्वामी स्तब्ध
रहते है,स्वामी जी के स्तब्ध रहने का मतलब साफ़ नकार होता था.
यह समझकर उन सज्जन
को बड़ा गुस्सा आता है , वे मनोमन ही सोचते है:-“ वाह वाह ! स्वामी जी तो स्वयं मोक्ष के रास्ते पर चल रहे है, दिन
दुगनी और रात चौगुनी आध्यात्मिक प्रगति हो रही है ! पर मुझे उसी माया के दलदल में
गोते लगाने के लिए छोड़ रखा है. आध्यात्मिक दृष्टि से देखा जाए तो प्रपंच में कुछ
भी कमाना या गवाना एक स्वप्न में किये गए व्यवहार की तरह भ्रम मात्र ही होता है,
इसीलिए मैं इस भँवर से निकलना चाह रहा हूँ पर स्वामी जी तो मुझे साफ़ नकार दे रहे
है ”
दिल में गुस्से का
गुबार लेकर वह सज्जन सावंतवाड़ी को लौटते
है, और मैंने तो अपना मानस सद्गुरु को बता दिया है- ऐसा सोचकर अपना इस्तीफा लिख
देते है.
अगर खुद इस्तीफा
अपने वरिष्ठ अधिकारी को देंगे तो वह लेने में आना-कानी करेगा, इसलिए वह कागज़ अपने
पडोसी के पुत्र के हाथों कचहरी भिजवाते है.
मनुष्य के सर से जब
कोई दबाव उतर जाता है तब उसे बेफिक्री की गहरी नींद आती है.
भोजन के पश्चात, अब मुझ पर कोई दबाव या बंधन नहीं इस भाव से
वे चारपाई पर लेट जाते है, उन्हें गहरी नींद लग जाती है.
एक दम से उन्हें
स्वप्न में आवाज आती है:- “ अरे उठ, क्या सो रहा है ! जा जाकर अपने काम में लग !”
वह सज्जन चौंक कर
जाग जाते है, आवाज खनकदार और रोबीली थी.
नौकरी करने वाले
कर्मचारी जैसे अपने अधिकारियों की चढ़ी हुई आवाज सुनकर ठिठक कर एकदम से सावधान हो
जाते है, वैसा ही इन सज्जन का हाल हुवा था.
वह उठकर मुंह- हात
धोकर देखते है तब उन्हें पता चलता है कि दोपहर हो चुकी है, पडोसी के लड़के से पूछते
है तो पता चलता है कि वह इस्तीफे की अर्जी जेब में रख कर ही भूल गया था.
फिर क्या, वह सज्जन
चुपचाप कचहरी आकर अपने कार्य में जुट जाते है. सद्गुरु कृपा भी ऐसी कि कोई भी
उन्हें देर से आने के बारे में कुछ भी नहीं कहता है.
देखते-देखते २ वर्ष
गुजर जाते है और इसी दौरान इन सज्जन की माताजी का देहावसान हो जाता है. और्ध्देहिक
व श्राद्ध इत्यादि निपटाकर वह सज्जन श्री
स्वामी के दर्शन को जाते है, तब श्री स्वामी उनसे स्वयं होकर कहते है:-“ जाओ, अपनी
नौकरी से इस्तीफा दो और अध्यात्म के रास्ते पर चलो.”
इन सज्जन को घनघोर
आश्चर्य होता है.
फिर स्मितवदन
से स्वामी कहते है:-“ अरे उस समय हम आपको इस्तीफा कैसे देने देते ? तब आपकी
माताजी का भरण-पोषण, सेवा-सुश्रुशा इत्यादि कैसे होती ? हमें, न केवल भक्तों के
बारे में वरन उनके परिवार के बारे में भी सोचना होता है.
साथ ही तब आपका मन
भी दो नावों पर सवार व्यक्ति की तरह उद्विग्न रहता, अब आप कर्तव्य मुक्त हो, इसलिए
पूरी तरह परमार्थ के रास्ते पर चल सकते हो.”
वह सज्जन कृतज्ञता
से स्वामी के चरणों में झुक जाते है.
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