Sunday, January 28, 2018

३२ मर्म का महत्त्व

श्री टेम्बे स्वामी से वेदांत श्रवण करने का महाभाग्य जिन महानुभावों को मिला उनमें बड़ोदा के राम शास्त्री प्रभाकर का नाम प्रमुखता से लिया जाता है. शास्त्रीजी अध्ययन हेतु अपने मामा के यहाँ शिनोर में रहते थे. वे सिर्फ १८ वर्ष के ही थे जब प्लेग के कार उनके पिताश्री की मृत्यु हो जाती है.
पिताजी का साया उठ जाने से शास्त्रीजी बहुत ही निराश हो जाते है और इस कार से वे गृह त्याग करने का मानस बना लेते है.
तभी उनके स्वप्न में एक सन्यासी आकर उनसे कहते है, “ अरे, आप अगर वन में चले जायेंगे तो आपकी माँ कितने दुखो को प्राप्त होगी ? इस बात का विचार भी किया है या नहीं ?
जब कर्दम ऋषि वन में गए थे तब उनके पुत्र कपिल मुनि भी अपनी माँ को त्याग कर वन में नहीं गए वरन उन्होंने अपनी माँ को अध्यात्म उपदेश देकर शोक रहित किया.
संन्यासी जी आगे कहते है, “मात्रे अध्यात्मनिवेदनम्  (माता को अध्यात्म निवेदन किया)
स्वप्न में ही रामशास्त्री प्रति-प्रश्न करते है :-“किं तत् अध्यात्मम् (वह् अध्यात्म क्या है ?)
सन्यासी:-“ जीव ब्रह्मण्यो: एक्य प्रतिपादनम् (जीव और ब्रह्म के एकरूप होने का प्रतिपादन)
रामशास्त्री:-“ तत् अहम् कथं विजानीयाम् ?” (वह मैं कैसे जानूंगा ?)
“एक साल में आपको इसका ज्ञान हो जायेगा” ऐसा कहकर सन्यासी स्वप्न में ही अंतर्धान हो
जाते है.
इसके बाद समय-समय पर सन्यासीजी स्वप्न में आकर शास्त्रीजी को निर्देशित करते थे और शास्त्रीजी द्वारा वैसा न कर पाने की स्थिती में उन्हे दण्डित भी किया करते थे.
इधर टेम्बे स्वामीजी भी ईश्वर की आज्ञा से शिनोर में आकर वास करने लगते है.
शास्त्रीजी युवा थे, अहंकारी भी थे और इसलिये वे टेम्बे स्वामी से मर्यादित व्यवहार नहीं करते थे. अतः टेम्बे स्वामी भी उन्हें अनदेखा किया करते थे.
एक बार किसी हितैषी के बार-बार निवेदन करने से शास्त्रीजी टेंबे स्वामी के पास आते है पर उनकी हेकड़ी बनी रहती है.
टेम्बे स्वामी उनसे उनके शास्त्र अध्ययन के बारे में पूछते है.
जवाब मिलाता है:- “वेदाध्यन, काव्यादी हो गया है और वर्तमान में एक स्थान पर श्री मद भागवत कथा सुनाते है “
इस पर टेम्बे स्वामी श्रोमदभागवत के पहले ही श्लोक “जन्माद्यस्य यतोन्वयात् ” की विवेचना पूछते है.
इस पर शास्त्रीजी वेदांती श्लोकों की विवेचना न कर पाने की उनकी अक्षमता स्वीकार कर लेते है.
इस पर टेम्बे स्वामी कहते है,- “ अरे जब आपको भागवत का मूल ही नहीं समझा तो पूरी भागवत पढ़ने से क्या हासिल होगा ?”
इस पर शास्त्रीजी को भयंकर क्रोध आ जाता है.
श्रीस्वामी शांति से सिर्फ इतना ही कहते है, “मात्रे अध्यात्मनिवेदनम्
यह सुनकर शास्त्रीजी एकदम जडवत हो जाते है, यह तो वही वाक्य था जो उन्हें स्वप्न में आये सन्यासी ने कहा था.
नके मन में इस बात की प्रचिती हो जाती है कि उनके स्वप्न में आकर उन्हें निर्देशित करने वाले सन्यासी कोई और न होकर टेम्बे स्वामी ही है.
इस पर शास्त्रीजी की सारी अकड और हेकड़ी उतर जाती है, उनका कंठ भर आता है, सारा शरीर रोमांचित हो जाता है, आँखों से अविरल आंसू बहने लगते है.
वे स्वामीजी को साष्टांग प्रणाम करते है.
अगले ही दिन से शास्त्रीजी का अध्ययन आरंभ हो जाता है, दोनों गुरु व चेले का सारा दिन सी में जाने लगा था.
टेम्बे स्वामी अपने उस मुक्काम में पंचदशी और भागवत का अभ्यास करवाते है. हाँ से जाते समय श्री स्वामी अपनी पानी पीने की नरोटी, लक्ष्मी सूत्र व कटीसूत्र शास्त्रीजी को प्रदान  है.
द्वारका के चातुर्मास के बाद टेम्बे स्वामी फिर से शिनोर आते है और वहाँ
 ३ महीने रहते है.
बाद में टेम्बे स्वामी की आज्ञानुसार शास्त्रीजी गरुडेश्वर आते है और फिर आखिर तक श्रीस्वामी के साथ ही रहते है.

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