Sunday, January 28, 2018

३० निर्गुण भक्ति और सगुण भक्ति

सदियों से ईश्वर प्राप्ति के लिए निर्गुण भक्ति वसगुण भक्ति के उपासकों में मतभेद रहा है, ये दोनों मार्ग ईश्वर की तरफ ही लेजाते है पर इनके साधक अपने-अपनेमार्ग को ही विशेष बतलाते है.
अगर एक पतिव्रता नारी जिसका पति परदेश गया है, वह अपने पति के फोटो को अपने माथे  से लगाकर नमन करती है तो वह असल में किसे नमन करती है? वह फोटो तो उसके पति नहीं है क्योंकि पति तो परदेश में है; अगर वह फोटोतोएक कागज है तो फिर वही कागज क्यों ? घर में अन्य कागजों की रद्दी क्या कम होती है ?
इसका सरल उत्तर यह है कि वह फोटो उस महिला के ह्रदय में उसके पति के प्रति उत्कट भाव जगाते है, जिसे अन्य कागज नहीं जगा सकते है. इस तरह फोटो तो सिर्फ एक साधन होता है, वह महिला भक्ति तो अपने पति की ही करती है.
उसी तरह भगवान की मूर्ति भी एक साधन ही होती है, असल में भक्ति तो जगत के पति अर्थात भगवान की ही होती है.
वास्तव में देखाजाये तो मूर्तिपूजा शब्द ही थोडा सअनुपयुक्त है इसका सही नाम तो मूर्ति-माध्यम-पूजा होना चाहिए.
श्रीमद्भगवद्गीता मेंकहा गया है- ‘*क्लेशःअधिकतरःतेषाम्अव्यक्तासक्तचेतसाम्,
अव्यक्ताहिगतिःदुःखम्देहवद्भिःअवाप्यते*’
यह श्लोक निर्गुण भक्ति की कठिनता को इंगित करता है.
जब हम किसी लोहे के तुकडे को को एक चुम्बक से बार-बार रगडते है तो कुछ समय बाद वह लोहा भी चुम्बक बन जाता है. हमईश्वर के अंश है और हममेंईश्वर जागृत रूप में विद्यमान है, अगर हम देवमूर्ति की भी उत्कट भक्ति करें तो उस मूर्ति में भी सुप्त पड़ा हुवा देव (चैतन्य) हमारे कारण जागृत हो उठता है और हमारे समान ही सजीवव्यवहार करने लगता है.

श्रीमद्भगवद्गीतामेंभगवान का वचन है-‘*पत्रं पुष्पं फलं तोयं यो मे भक्त्या प्रयच्छति । तदहं भक्त्युपहृतमश्नामि प्रयतात्मनः*’ अर्थात प्रेम से अर्पितपर्ण, फुल,फल या जल भी भक्ति से विवश भगवान ग्रहण कर लेते है.

भगवानने अपने इस वचन की प्रचिती संत नामदेव, धन्ना जाट व रामकृष्ण परमहंस जैसे भक्तों के हाथों से अन्न ग्रहण करके हमें दिखलाई है.

इसीलिए कई देवस्थानो को जागृत देवस्थान कहा जाता है, जहांभक्तों की भक्ति के कारण देवमूर्ति अपनी जड़ता की छोड़कर चैतन्यपुर्वक व्यवहार करने लगती है.
टेम्बे स्वामी की इसी उत्कट भक्ति के कारण उनके पास रहने वाली दत्तप्रभु की मूर्तियाँ इतनी जागृत हो गई थी कि वे कभी रूठ कर नदी में जाकर बैठ जाती थीतो कभी नई-नई फरमाइश किया करती थी, कभी-कभी एक जीवित बालक के समान अपना अंगूठा चूसते हुवे स्वामीजी की गोदी में बैठकर अपना दुलार करवाती थी.
ब्रह्मावर्त में एक अभिमानी शास्त्रीजी ने स्वामीजी से कहा:-“ अरे स्वामीजी आप तो साधना पथ में इतने आगे पहुँच गए हो, फिर भी ये मूर्तिपूजा क्यों करते हो ? ईश्वर निर्गुण है, मूर्तिपूजा तो भक्ति मार्गमेंशुरुवात के पड़ावों पर खड़े भक्तों के लिए होती है.”
ऐसी अधिकार पूर्वक बाते तो सिर्फ एक सखा ही कर सकता है, इस तरह एक प्रकार से शास्त्रीजी स्वामी के सख्य भक्त हुवे.
अपने सख्य भक्त की बांते स्वामीजी भला कैसे टालते ? वे शास्त्री जी के समाधान के लिए गंगाजी के पात्र कीबीच धार में मूर्ति को छोड़ देते है, पर स्वामीजी की उत्कट भक्ति से जागृत वह मूर्ति बहाव को झुठलाते हुवे किनारे से आ कर लग जाती है.
इस पर श्री स्वामी कहते है:-“ देखियेशास्त्री जी, हम ने तो इस मूर्ति को छोड़ दिया था पर यह मूर्ति कहा हमें छोड़ती है !”
अपनी ज्ञानोत्तर भक्ति के अभिमान से ग्रस्त शास्त्री बुवा का सर लज्जा से झुक जाता है, उन्हें प्रेम भक्ति की श्रेष्ठता का प्रत्यय हो जाता है.इसी प्रेम भक्ति के बल पर अनपढ़ गोपियों ने ज्ञानी उद्धव के उपदेशों को खंड-खंड कर दिया था.
इस कथा का तात्पर्य यह है कि ज्ञानोत्तर भक्ति अपनी जगह ठीक है पर वह अगर वह नारायण के पास न ले जाकर सिर्फ ज्ञान का अभिमान कराती है तो वह व्यर्थ है.
श्रीमद भगवत में भी कहा गया है-“*नारायण परा वेदा*”-अर्थातभगवान वेदों से भी परे है और वेद भी भगवान को भलीभांति वर्णित नहीं कर सकते है.
वेद,ज्ञान,योग,तप और मोक्ष- इन सबका अंतिम उद्देश्य परमात्माकी प्राप्ति ही होता है, अगर ये साधन जरा भी इस कैवल्य प्राप्ति से दूर लेकर जाते है तो वे व्यर्थ ही सिद्ध होंगे.
निर्गुण भक्ति हमें कर्मकांड केपाखंडों वअज्ञान के प्रमादो से बचाती है तो सगुण भक्ति प्रेम का प्रादुर्भाव करवाकरईश्वर से दूर भटकने से रोकती है.

प्रकाश केदो स्वभाव होते है-तरंग स्वभाव व कण स्वभाव -कोई भी एकस्वभाव प्रकाश के सभी गुणधर्मो को समझा नहीं सकता है.ईश्वर भी प्रकाश की तरह होता है- निर्गुण व निराकार होकर भी भक्तों की खातिर वह सगुण रूप ले लेता है.

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