Sunday, January 28, 2018

३३ हर हर नर्मदे


हिमालय में अपना दो वर्षों का अज्ञातवास व्यतीत करके टेम्बे स्वामी ब्रह्मावर्त पहुंचे. उस समय नर्मदा माता को भी लगा जैसे स्वामीजी गंगा किनारे वास कर रहे है वैसे ही वे उनके तट पर भी आकर वास करें.

तीर्थी कुर्वन्ति तीर्थानि स्वान्त: स्थेन गदाभृता

शास्त्र के इस वचन के अनुसार स्वामीजी उस कोटि के संत थे जो अपने ह्रदय में व्याप्त परमात्मा के कारण तीर्थों को भी पवित्र बनाते है.
गंगाजी ने  भी पृथ्वी पर आने से पहले राजा भगीरथ से प्रश्न करा था कि गंगा स्नान करने वाले लोगों के धुले हुवे पापों को वे कहाँ जाकर धो पायेगी ?
इस पर भगीरथ ने उत्तर दिया था :-

साधवो न्यासिनः शान्ता ब्रह्मिष्ठा लोकपावनाः
हरन्ति अघं ते अंगसंगात् तेष्वास्ते ह्यघभित् हरिः ||

शांत स्वरुपवाले, ब्रह्मनिष्ठ और लोगों को पवित्र करने वाले साधु सन्यासी अपने अंग स्पर्श से तुम्हारे पाप नष्ट कर देंगे क्योंकि उन लोगों में पाप का विनाश करने वाले भगवान बसते है.

इसीलिए नर्मदा माता स्वप्न दृष्टांत द्वारा अपना मानस टेम्बे स्वामी को जता देती है.
पर टेम्बे स्वामी तो दत्त प्रभु की आज्ञा बिना तो कही भी एक कदम भी नहीं रखते थे, इसी कारण से वे नर्मदा माता के आमंत्रण की अवहेलना कर देते है.

कुछ समय बाद  वहाँ एक विलक्षण घटना घटती है, एक त्वचा रोग से बुरी तरह त्रस्त ब्राह्मण व्यक्ति को कोई सलाह देता है कि अगर तुम्हें टेम्बे स्वामी का चरण तीर्थ मिल जाये तो तुम्ह रोग मुक्त हो सकते हो ! पर टेम्बे स्वामी तो किसी को भी अपने चरणों का तीर्थ नहीं देते थे.

पर वह ब्राह्मण तो अपनी व्याधि से इतना त्रस्त था कि वह स्वयं ही महाराज की लेखन कार्य में तल्लीन अवस्था  में उनके चरणों पर जल डालकर उसे तत्काल ही पी लेता है.
टेम्बे स्वामी के पूछने पर वह ब्राह्मण प्रामाणिक ढंग से अपनी विवशता बताकर क्षमा मांगता है.
टेम्बे स्वामी तत्काल ही जाकर गंगा स्नान कर लेते है पर उनका चित्त अस्वस्थ हो जाता है, उन्हें कुछ  शारीरिक पीड़ा होने का पूर्वानुमान होने लगता है.
रात को स्वप्न में उन्हें एक चांडाल स्त्री छू लेती है. टेम्बे स्वामी  ईश्वर का ध्यान करते है पर सुबह नींद से उठते ही उनके सारे शरीर पर फोड़े हो जाते है.
उधर उस ब्राह्मण को पूर्णतः: रोग मुक्ति मिल जाती है.
महाराज गंगाजी की पांच श्लोकों से स्तुति करते है पर कुछ लाभ नहीं होता है.

रात्रि में दत्त प्रभु स्वप्न दृष्टांत देकर कहते है:-“ यह सब अनधिकारी व्यक्ति को चरण तीर्थ देने से हुवा है पर  अपराध अनजाने में होने से केवल दिन के नर्मदा स्नान से यह रोग ठीक हो जायेगा.”
इस प्रसंग के बाद स्वामीजी ब्रह्मावर्त से नेमावर जो कि माँ नर्मदा का नाभीस्थल है वहाँ चले आते है. टेम्बे स्वामी  नर्मदाजी से कहते है, “माँ मेरे इस छोटे से अपराध का इतना कठोर दंड क्यों दिया ?”
आगेक्या मेरे अलावा आपका महत्त्व बढ़ाने वाला अन्य कोई और नहीं है क्या ?” ऐसा सवाल भी पूछते है.
तीन दिन के नर्मदा स्नान के बाद वह दूसरों का भोग समाप्त हो जाता है.
इसी दौरान ही स्वामीजी ने नर्मदा लहरी की भी रचना की थी.

इस बात से पता चलता है कि टेम्बे स्वामी   का अधिकार कितना बड़ा था और उस समय दूसरा अन्य कोई नर्मदा माता की व्यथा का निवारण नहीं कर सकता था.
शायद यही कारण है की आजकल टेम्बे स्वामी के स्तर के साधु के बराबर होने से और संतों के भेस में दम्भी पाखंडी लोगों के होने से तीर्थों में दुर्घनाये बढ़ रही है क्योंकि पाप तो अपना ताप देकर ही रहता है, उसे तो सिर्फ पुण्य की सहायता से ही नष्ट किया जा सकता है वरना उसे भोगे बिना और अन्य कोई गति नहीं होती है.
टेम्बे स्वामी के सबसे अधिक चातुर्मास नर्मदाजी के तट पर ही हुवे थे और अंत में उनकी महा समाधि भी गरुडेश्वर में नर्मदाजी के परिक्षेत्र में ही ली गई थी.
एक बार ब्रह्माणी घाट पर चलते समय पैर फिसलने से टेम्बे स्वामी की कमर में लचक जाती है, लचक इतनी तीव्र थी कि बैठी जगह से उठते तक नहीं बनता था.
तभी टेम्बे स्वामी  की भिक्षा का भी समय हो जाता है, टेम्बे स्वामी अगर चाहते तो मंत्र योजना से अपनी लचक ठीक कर सकते थे, पर प्रारब्धकर्माणं भोगात् एव क्षय:इस शास्त्र के इस वचन के अनुसार वह इस भोग को भोगकर ही उसके निर्दालन करने का मानस नाते है. पर माँ तो आखिर माँ ही होती है, नर्मदा माँ एक कुमारी के रूप मे आकर उनसे कहती है :-“आपके भिक्षा का समय हो गया है, मैं आपकी लचक ठीक कर देती हूँ
ऐसा कहकर नर्मदा माँ भस्म को अभिमंत्रित करकर स्वामीजी की कमर में मल देती है और उन्हें खड़े होकर अपने पैर को जोर से झटकने का आग्रह करती है. स्वामीजी के ऐसा करते ही उनके पैरो की लचक पूर्णत: ठीक हो जाती है.
टेम्बे स्वामी  तुरंत ही नर्मदा माँ को पहचान जाते है और उनके नर्मदा स्तुति करते ही नर्मदा माँ अंतर्धान हो जाती है. इस घटना के बाद में स्वामीजी ब्रह्माणी गाँव में भिक्षा लेने जाते है, पर वहाँ पर एक दुर्जन व्यक्ति के वर्चस्व के कारण सभी प्रकार के अनाचार हो रहे थे.
इस बात से दुखी होकर टेम्बे स्वामी भिक्षा ग्रहण करते हुवे गाँव के बाहर एक वृक्ष के नीचे आकर बैठ जाते है. नर्मदाजी पुन: एक कुमारी के रूप में प्रगट होकर भिक्षा ग्रहण करने का कारण पूछती है.

स्वामीजी कहते है,” ऐसे धर्मभ्रष्ट गाँव की भिक्षा लेने के अपेक्षा नर्मदाजी का पानी पीकर रहना श्रेयस्कर होगा.” इस पर वह कुमारी कहती है,” पंडितजी आप मेरे गाँव नेमावर चलिए, वहाँ भिक्षा ग्रहण कीजिये
इस पर स्वामीजी कहते है, “मैं सिर्फ दक्षिणी ब्राह्मणों के यहाँ की ही भिक्षा ग्रहण करता हूँ, वह भी कम से कम घरों की.”
कुमारी कहती है, “ वहाँ पर १७ दक्षिणी ब्राह्मणों के घर है

इस पर टेम्बे स्वामी नेमावर चले आते है, उस कुमारी की बाते शत-प्रतिशत सही निकलती है पर लाख ढूंढने से भी उस कुमारी का कोई अता -पता नहीं चलता है. चलता भी कैसे ? वह तो साक्षात् नर्मदा मां थी जो एक कुमारी का रूप लेकर टेम्बे स्वामी की सहायता करती है.
एक बार गरुडेश्वर मैं बर्तन मांजने वाले एक सेवादार के हाथों से एक बड़ा सा बर्तन छुटपकर नर्मदाजी की धारा में बहने लगता हैकिसी ने जब स्वामीजी के कानों पर यह बात डाली, तब स्वामीजी नर्मदाजी के किनारे आकर कहते है, “नर्मदा माँ इस बर्तन का क्या करेगी ? वह क्यों अपने बच्चों के अन्न-ग्रहण कार्यक्रम में देरी करवाएगी !”
स्वामीजी के ऐसा कहते ही वह बर्तन धीरे-धीरे लहरों के द्वारा तट पर खड़े श्री स्वामी के पैरो के पास आकर लग जाता है, जैसे  खुद नर्मदा माँ ने ही लौटाया हो.

एक बार गरुडेश्वर में बहुत वर्षा होने के कारण नर्मदाजी का जलस्तर बढ़ जाता है, बाढ़ के डर से भयभीत लोग स्वामीजी के पास चले आते है. इस पर स्वामीजी नर्मदा माता से प्रार्थना करते है, “हे माँ, अगर बाढ़ आई तो तेरे भक्तों को ही त्रास होगा, अतः बाढ़ आवे.” ऐसा कहकर टेम्बे स्वामी अपना दंड नर्मदाजी के जल को छुवा देते है, दंड का स्पर्श होते ही जलस्तर घटना शुरू होकर बाढ़ का खतरा टल जाता है.

इन घटनाओं से पता चलता है कि नर्मदा माँ टेम्बे स्वामी से कितना स्नेह करती थी.

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