मराठी में माता को सम्मानपूर्वक
माउली कहा जाता है, औरअपने शिष्यों को माता के समान वात्सल्य देने वाले सद्गुरुओं
को भी माउली कहा जाता है. यहाँ कथा नागपुर के एक अमीर सज्जन के
यहाँ पुजारी के रूप में कार्य करने वाले एक व्यक्ति की है. पुजारीजी ने टेंबे स्वामी के बारे में बहुत कुछ सुना
था पर उनके दर्शन करने के लिए कहा जाया जाये, इस बात से वह
अनभिज्ञ थे. उस समय इंटरनेट तो था नहीं, कोई भी जानकारी पूछ-पूछ कर ही
जुटानी पड़ती थी.
पुजारीजी की स्वामी
दर्शन की तीव्र इच्छा थी पर स्वामीजी कहा ठहरे हुए है यह पता नहीं चल रहा था.
स्वामीजी यति होने के कारण चातुर्मास के सिवाय एक स्थान पर निर्धारित समय से
ज्यादा नहीं रुक सकते थे.
एक दिन वह डाकघर में
पत्र डालने जाते है, वहाँ पर एक
डाकिया पत्रों की छँटनी करते हुवे मिलता है.
देखिये, कैसा देव
संयोग कि पुजारीजी के वहाँ पहुँचते ही श्री स्वामी के नाम आई एक चिट्ठी डाकिया
उठाकर उस पर लिखा नाम-पता जोर से बुदबुदाता है और
पुजारीजी को उनके प्रश्न का उत्तर आसानी से मिल जाता है.
उस समय स्वामीजी
राजपिपला संस्थान के अंतर्गत आने वाले श्री क्षेत्र गरुडेश्वर में पधारे हुवे
थे.
पर सिर्फ जानकारी से
क्या होता है, मानवीय जीवन में मनुष्य का नौकरी में होना ही
उसकी सबसे बड़ी परतंत्रता होती है और ऊपर से पुजारीजी के पास धन का अभाव भी था.
एक दिन पुजारीजी पुजन
कर रहे थे और तभी पूजाघर में उनके नियोक्ता का आना होता है, पुजारीजी
साहस जुटाकर अपना मनोगत अपने नियोक्ता को बताते है.
“ठीक है चले जाइये, “
ऐसा सहज उत्तर उनके नियोक्ता से मिलता है. कुछ देर बाद नियोक्ता के मन में जाने
क्या आता है कि वह स्वयं होकर पुजारीजी के बिना मांगे उन्हें थोडा धन भी
प्रदान कर देते है, कहने की जरूरत नहीं है कि इस सब के पीछे वासुदेव-कृपा कार्य
कर रही थी.
पुजारीजी की प्रसन्नता
का तो पार ही नहीं रहता है. पुजारीजी हर वर्ष दत्त जयंती के समय गुरुचरित्र का
साप्ताहिक पाठ रखते थे और इस बार उनका गरुडेश्वर जाना भी इन्हीं दिनों में होता
है.
श्री क्षेत्र पहुँचते
ही वे नर्मदा स्नान के लिए जाते है.
वहाँ पर वे देखते
क्या है कि श्री स्वामी स्वयं नर्मदा स्नान के लिए उतरे हुवे है, स्वामीजी
को देखकर पुजारीजी श्रद्धा से नमस्कार करते है. स्वामीजी उन्हें
इशारा कर के अपने पास स्नान के लिए बुलाते है.
इस तरह पुजारीजी का
अवभृत स्नान (यज्ञ-समाप्ति के समय किया जाने वाला स्नान) गुरुकृपा से घटित हो जाता
है.
स्नान के पश्चात गुरु
से आज्ञा लेकर पुजारीजी सप्ताह पाठ करने के लिए बैठते है पर कुछ
ही देर के बाद उनके मन में विचार आता है कि वह अब तक वह सिर्फ भूने हुवे सिंगदाने
व छाछ का सेवन सप्ताह पाठ के दौरान करते थे पर यह सब यहाँ कैसे मिलेगा ?
उस दिन के पाठ के समाप्त
होते ही स्वामीजी कहते है :-“ पड़ोस के घर
में जाइये वहाँ छाछ व सिंगदाने की व्यवस्था हो जाएगी.”
इस तरह सातों दिन
पुजारीजी को उनका मनोवांछित आहार मिलता गया, सातवें दिन स्वामीजी की जी-भर के सेवा करने
का सौभाग्य भी मिला और दत्त जयंती भी आनंदपूर्वक मन गयी.
अगला दिन पारणे का था, उस दिन श्री स्वामी के साथ दो सन्यासी भी
बैठे हुवे थे, मानो ऐसा लगता था कि साक्षात् दत्त-त्रिमूर्ति ही सामने विराजमान
हुई हो. कुछ महिलाये प्रेम पूर्वक वहाँ पंगत में बैठे लोगों को
भोजन परोस रही थी.
उसी समय पुजारीजी के
मन में विचार आता है कि अगर वे थोडी
भी पाक विद्या जानते होते तो श्री स्वामी को अपने हाथों से कुछ
बनाकर प्रेम पूर्वक खिलाते पर उन्हें तो कुछ भी पकाते नहीं आता था.
श्री स्वामी कुछ देर
बाद पुजारीजी को आज्ञा देते है कि जहां से प्रतिदिन छाछ लाते थे वहाँ से छाछ ले आवे.
पुजारीजी आज्ञा का
तुरंत पालन करते है और स्वामीजी के सामने छाछ का पात्र रख देते है.
श्री स्वामी मुसकुराकर
कहते है:- “अरे देखते क्या हो, इसे हमें परोसो !”
पुजारीजी तो मानो आनंद
के मारे भाव-विभोर हो जाते है. स्वामीजी थोडीसी छाछ ग्रहण कर के बची हुई छाछ सभी भक्तों को
तीर्थ के रूप में बटवा देते है.
पुजारीजी को भी प्रसाद
मिलता है. इस तरह पुजारीजी की हर छोटी-बड़ी मनोकामना स्वामीजी तुरंत ही पूरी करवा देते है.
पूरा दिन आनंद से बीत
जाता है, रात को भजन, आरती इत्यादि का कार्यक्रम होता है और फिर सब लोग ख़ुशी-ख़ुशी
शयन करते है. रात्रि में पुजारीजी को स्वप्न आता है कि हजारों सन्यासी
बैठे हुवे है और वे सबको छाछ परोस रहे है.
इस कथा का बोध यह
है कि श्रद्धा
पूर्वक मन से की गयी सद्गुरु-सेवा का अनंत फल मिलता है और सद्गुरु तो एक सुह्रद
माता के समान अपने सुज्ञभक्तो की छोटी से छोटी सदिच्छा पूरी करते है.
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