Sunday, January 28, 2018

११ पथ-प्रदर्शक श्रीस्वामी

इसवी सन १९११ साल की ये बात है . पुणे के एक शिक्षक परिवार में ३ मूर्तियाँ थी- वह स्वयं, उनकी धर्मपत्नी और एक ४ वर्षीय बालक. उस समय श्री स्वामी का चातुर्मास निजाम संस्थान के अंतर्गत आने वाले श्री क्षेत्र कुरवपुर में श्रीकृष्णा नदी के तट पर श्री वल्लभ स्वामी मंदिर के टापू पर था.
एक उल्लेखनीय बात यह है कि श्री रामदास स्वामी की जन्म स्थली जाम्बगाँव, नृसिंह सरस्वती की कर्म भूमिश्री क्षेत्र गाणगापुर एवं एकनाथ महाराज का शहर पैठण, ये सभी निजाम संस्थान के अंतर्गत आते थे.
यह छोटा सा परिवार श्री स्वामी के दर्शन के लिए प्रस्थान करता है. उस समय पूरा भारत देश प्लेग की महामारी से ग्रस्त था. हजारों लोग काल-कवलित हो रहे थे. इसलिए उन दिनों प्लेग के कारण जगह-जगह क्वारंटाइन लागू किया जाता था. क्वारंटाइन अर्थात रोगग्रस्त क्षेत्र से आने वाले लोगों को कुछ समय के लिए किसी बाहरी स्थान पर रोककर रखना ताकि उनमें से अगर कोई रोगग्रस्त हो (और उसके लक्षण प्रगट न होने से उपरी तौर पर स्वस्थ दिखता हो ) तो उसके कारण गंतव्य की जगह में यह रोग ना फैले.
पुणे से रायचूर की रेलगाड़ी पकड़ते समय इस परिवार को एक दक्षिण भारतीय व्यक्ति मिलता है. उस व्यक्ति को भी रायचूर ही जाना रहता है और वह इस परिवार के साथ ही यात्रा करने लगता है.
गाडी के छुटते ही शिक्षक परिवार नित्य-नियम के अनुसार करुणा-त्रिपदी का पाठ करता है, फिर कुछ भजन का गान भी करता है.
संध्याकाल के सात बजे अपने पुत्र को भोजन कराकर उसकी माँ उसे सुला देती है. बाद में वह दंपति उस दक्षिणी व्यक्ति को भी भोजन के लिए निमंत्रित करती है, सभीमिल कर भोजन संपन्न कर लेते है. वह दक्षिण भारतीय व्यक्ति उस परिवार से उनके गंतव्य को जाने के कारण के बारे में पुछता है.
 वह परिवार उसे श्री स्वामी के बारे में बताता है और उस दक्षिण भारतीय व्यक्ति के उत्सुकता दिखाने पर उसे वे स्वामीजी की लीलाओं की कथाएँ सुनाते है, कथाएँ सुनते और सुनाते आधी रात बीत जाती है.
उसके बाद सब लोग निद्रा के अधीन हो जाते है.
अगले दिन  वाड़ी स्टेशन पर जब ट्रेन रुकती है तब वहाँ एक सरकारी अधिकारी आता है और सबको क्वारंटाइन क्षेत्र की और भेजने लगता है. अपने साथ पुणे से लाये सिफारिशी पत्र के होने पर भी अधिकारी उन्हें छोड़ने को तैयार नहीं था.
तब दक्षिण भारतीय व्यक्ति कहता है  कि उन सबको फ़िलहाल क्वारंटाइन क्षेत्र की ओर जाना चाहिए, वहाँ रायचुर का मुख्य अधिकारी मेरा चचेरा भाई है, वह कुछ रास्ता निकाल ही देगा. दक्षिण भारतीय व्यक्ति, तार करने के लिए बाहर  जाना चाहता था पर सरकारी अधिकारी उसे क्वारंटाइन क्षेत्र से बाहर ही निकलने नहीं देता है.
तभी एक मजदूर खुद होकर ही उन्हें तार का फार्म लाकर देता है. तार लिखकर उसी मजदूर के हाथों भिजवाया जाता है, तत्काल ही वह मजदूर व्यक्ति तार की रसीद भी लेकर आता है और बचे हुवे पैसे लौटाता है जो उसे ही वापस इनाम के तौर पर दे दिए जाते है.
लगभग एक घंटे के बाद रायचूर से सरकारी आदेश आता है और इन चारोंलोगों का क्वारंटाइन ख़त्म कर दिया जाता है, अब ये लोग  आगे प्रवास करने के लिए स्वतंत्र थे.
रायचुर पहुँचते ही दक्षिण भारतीय व्यक्ति के चाचाजी के घर पर जाया जाता है. वहाँ पर सभी लोगों के लिए रसोई तैयार थी. भोजन के उपरांत चाचाजी आगे के प्रवास के लिए उन्हें बैलगाड़ी की व्यवस्था करवा देते है. दक्षिण भारतीय व्यक्ति वही रुक जाता है और शिक्षक का परिवार आगे बढ़ जाता है. जाते समय दक्षिण भारतीय व्यक्ति उस परिवार को अपने पुणे के निवास का पता कागज पर लिख कर दे देता है.
फिर क्या उस परिवार का श्री दर्शन हो जाता है, यात्रा भी कुशलता पूर्वक संपन्न हो जाती है. पुणे वापस लौटने पर कृतज्ञ परिवार जब उस दक्षिण भारतीय व्यक्ति से मिलने जाता है तब उन्हें यह जानकार आश्चर्य होता है कि लिखित पते पर ऐसा कोई भी व्यक्ति निवास नहीं करता है.
तुकाराम महाराज ने अपने एक अभंग में कहा है –“ कि मैंजहां भी जाता हूँ, वहाँतुम (भगवान के लिए संबोधन ) मेरे सह-प्रवासी होते हों “.
नर्मदा परिक्रमा करने वालों को मामा लोग (भील लोगों को माँ नर्मदा का भाई मानकर आदरपूर्वक मामा कहकर संबोधित किया जाता है ) झाडी में (बडवानी के समीप का एक सघन वन वाला क्षेत्र) अकसर लुट लिया जाता है.
धन्य है वे लोग जो यह जानकर भी वही से परिक्रमा करते है, वैसे सड़क मार्ग से प्रवास कर यह रास्ता टाला भी जा सकता है.
पर सभी लोगों को लुटा भी नहीं जाता है, कुछ लोगों को मामा लोग बिना कुछ हानिपहुँचाये छोड़ भी देते है. कितनी बार तो मामा लोग लुटना तो दूर, खुद होकर अन्न इत्यादि की सहायता भी कर देते है.
इन लोगों के साथ नर्मदा माता एक छोटी कन्या के रूप में उन लोगों के आगे चलती है , जिसे सिर्फ मामा लोग ही देख पाते है, और उस परिस्थिति में परिक्रमा वासियों की तरफ तो मामा लोग आँख उठाकर भी नहीं देखते है. परिक्रमा के दौरान रास्ता भटक जाने वाले कई परिक्रमावासियो को छोटे-छोटे पदचिन्हो के द्वारा माँ नर्मदा आगे का रास्ता बताती है.
मजेदार बात यह है कि माँ नर्मदा भी सिर्फ लुटने से ही नहीं बचाती है , वरन छिपाकर धन ले जाने वालों का भेद बताकर मामा लोगों से लुटवाती भी है.
महाराष्ट्र का एक साधु अपनी जटाओं में बहुत सारे रुपये छिपाकर  परिक्रमा को गया था. पहली बार तो मामा लोग उसे छोड़ देते है, पर कुछ देर के बाद फिर उसे घेरकर उसकी जटाए खुलवाकर सारे रुपये निकलवा लेते है.
साधु के पूछने पर वे लोग बताते है कि हमें हमारी बहन नर्मदा ने तेरे इस कपट के बारे में बताया था.
नर्मदा परिक्रमा के लिए तन-मन से निस्पृह होकर पूर्णतः: ईश्वर की शरणागति स्वीकार कर जाया जाता है, अगर वहाँ निर्ममता व निस्पृहता नहीं होगी तो आध्यात्मिक उन्नति कैसे होगी, और नर्मदा परिक्रमा भी सिर्फ एक पदयात्रा बन कर रह जायेगी.
श्री नाना महाराज तराणेकर जी को भी गरुडेश्वर जाते समय श्री स्वामी ने एक दक्षिण भारतीय सहयात्री के रूप में मदद की थी. उस समय  नाना महाराज श्री स्वामी की पुण्यतिथि के कार्यक्रम में सम्मिलित होने गरुडेश्वर जा रहे थे. गुरु शक्ति किस तरह  पश्च-भौतिक देह के त्याग के बाद भी शिष्यों और भक्तों की रक्षा व पथ प्रदर्शन कराती है इसका यह ज्वलंत उदाहरण है.
इसीलिए अक्कलकोट के स्वामी समर्थ के भक्तों का यह वाक्य आधार है –“हम गया नहीं जिन्दा है .“


No comments:

Post a Comment