मुंबई में रहने वाले
एक सज्जन को अनेक स्थानों पर श्रीस्वामी के दर्शन का सौभाग्य मिल चूका था, सनातन
वैदिक धर्म के कई रहस्य उन्हें श्रीस्वामी से ही अवगत हुवे थे. उन्होंने एक बार
सोचा कि यह लाभ तो सिर्फ उन्हीं तक सीमित रहेगा, पर अगर पुरोहित लोगों को यह ज्ञान
मिले तो समाज के एक बड़े तबके तक यह ज्ञान पहुँचेगा. इस हेतु के लिए वे अपने एक
पुरोहित मित्र को साथ लेकर श्रीस्वामी के दर्शन को जाने का मानस बनाते है.
पर पुरोहित जी कहते
है:-“अरे श्रीस्वामी तो ठहरे सन्यासी, उनके दर्शन तो सिर्फ चातुर्मास में होंगे,
और चातुर्मास तो हमारे लिए कमाई का समय
होता है. इस समय में शहर के बाहर कैसे जाया जा सकता है ? आपको जाना है तो आप अकेले
ही चले जाइएगा .”
इस बात के बाद वह
सज्जन अकेले ही स्वामीजी से मिलकर उन्हें सारा वृतांत बताते है. इस घटना को चार
साल बीत जाते है और उन सज्जन व पुरोहित में पूर्ववत सम्बन्ध कायम रहते है.
श्रीस्वामी का
मुक्काम गरुडेश्वर है, यह बात जानकार मुंबई के सज्जन श्रीस्वामी के दर्शन करने
का मानस बनाते है. तभी पुरोहित जी स्वयं
आकर उनसे स्वामी दर्शन के लिए साथ चलने की इच्छा प्रगट करते है.
वह सज्जन ख़ुशी-ख़ुशी पुरोहित
जी को साथ लेकर गरुडेश्वर पहुँच जाते है. ऐसा ही होता है, संत व देव दर्शन, पवित्र
नदियों व तीर्थों के दर्शन का योग इत्यादि कार्य संचित पुण्य से ही होते है. पहले
तो तीर्थयात्रा का मानस ही नहीं बनता है, अगर बन भी जाये तो योग नहीं बनता है, और
योग बन भी गया तो अनेक विघ्न सामने खड़े हो जाते है. जब पुरोहित जी के पुण्य जागे
तब ही उन्हें सद्गुरु दर्शन की सूझी, नहीं तो अब तक वे माया के बाजार में ही रम
रहे थे.
गरुडेश्वर जाकर दत्त
जयंती का उत्सव, आने वाले श्रद्धालुओं की भारी भीड़, श्री स्वामी की तपस्वी जैसी
जीवनशैली इत्यादि को पुरोहित जी जब अपनी
आँखों से देखते है तब उद्विग्न होकर वे उन सज्जन सेकहते है:-“ अरे... अरे... ,मैं
अगर चार साल पहले ही आपके साथ चलता तो कितना अच्छा होता ! मैंने अपने जीवन के चार
अनमोल साल इस सच्चे आध्यात्मिक सुख से वंचित रहकर गुजार दिए.”
पुरोहित जी की
मनोवेदना सच्ची थी, लेकिन अब अपनी गलती को भुलाकर वह बार-बार सद्गुरु दर्शन को आने
का मानस बना लेते है. फिर क्या पुरोहित जी कोंकण में जाकर अपनी इकलौती बहन को
लेकर मुंबई आ जाते है और वहाँ से वे दोनों
भाई-बहन गरुडेश्वर चले आते है, वापस मुंबई लौटने पर वे दोनों मुंबई के सज्जन को
अपने-अपने अनुभव बताते है.
बहन जी कहती है:- “
स्वामीजी वहाँ गीता व उपनिषदों पर प्रवचन देते थे पर मुझ बेचारी को ये सब क्या
समझता ! मैं तो अपनी वहाँरसोईघर में जाकर भोजन बनाने की सेवा देती थी. वहाँ २-३
बजे तक पंगत चलती थी, सबका भोजन हो जाने के उपरांत श्रीस्वामी का दर्शन कर तीर्थ–प्रसाद
लेकर ही मैं मेरा भोजन ग्रहण करती थी. एक दिन वहाँ ४०-५० व्यक्तियों का भोजन बच
गया था, बचा हुवा भोजन को मैंबाहर भिजवाकर बटवा ही देने वाली थी कि स्वामीजी ने
मुझे रोक दिया और कहा :-“ पन्हई से ५० के करीब लोग यहाँ आ रहे है, आते-आते ही
उन्हें अगर भोजन मिलेगा तो उन्हें कितना सुख मिलेगा !”
और कुछ ही देर में वहाँ
५० लोगों का एक जत्था आ जाता है, उस जत्थे में अनेक छोटे-छोटे बालक भी थे. उन्हें
आते-आते ही तैयार भोजन मिला और उन सबकी ख़ुशी का तो पार ही नहीं रहा, और उन लोगों
को संतुष्ट कर हम सेवादार लोगों का भी ह्रदय आनंद से भर गया.”
उसके बाद पुरोहित जी
अपने अनुभव बताते है:-“ सद्गुरु प्राप्ति के हेतु से मैंने आज तक अनेक
तीर्थ-यात्रायें की और कही कर्ममार्गी मिले तो कही योग मार्गी. कर्ममार्गी कर्म को
प्रधानता देते हैपर योगमार्गीयोंकी तरह शरण-भक्ति के सुख से थोड़े दूर हो जाते है.
हर मार्ग के अपने-अपने गुण-दोष होते है पर स्वामीजी में मैंने सब मार्गों का अनूठा
समन्वय देखा. उन्हीं के दर्शन से मुझे आर्य संस्कृति का सच्चा रूप देखने को मिला
और मेरे जीवन की सार्थकता सिद्ध हो गई .“
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