Sunday, January 28, 2018

२४ निर्विकल्प भक्ति से सद्गुरु की प्राप्ति


होलकर संस्थान के अंतर्गत आने वाले तराना गाँव (आज के मध्य प्रदेश में उज्जैन जिले के अंतर्गत आने वाला एक गाँव ) में एक शंकरशास्त्री नाम के एक वेदांती विद्वानरहते थे, जो एक वेद शाला भी चलाते थे. शास्त्री जी विरागी और सदाचारी व्यक्ति थे. उनकी गायत्री व दत्त प्रभु की उपासना थी. नागपंचमी के दिन शास्त्री जी को एक पुत्र रत्न की प्राप्ति होती है, बालक का नाम मार्तंड रखा जाता है. उज्जयिनी में सन्यास दंड लेने से पहले श्री स्वामी तराना गाँव आते है, और शंकर शास्त्री को अनुग्रह भी देते है.
कुछ समय के लिए श्री स्वामी का वास्तव्य शास्त्री जी के गृह पर होता है.बालक मार्तंड स्वयं श्रीस्वामी के पास जाकर बैठता था, स्वामीजी भी बालक से अत्यंत स्नेह रखते थे. उत्तर दिशा की तरफ प्रस्थान करने से पहले श्रीस्वामी बालक मार्तंड, जो उस समय ५ वर्ष का था, को आशीष देकर अपने गंतव्य को जाते है.
पर यह बालक कुछ अलग साथा, खेलने में उसका मन नहीं रमता थापर बालक मार्तण्ड् की अभ्यास में अत्यंत रुचि थी और वह मन लगाकर अध्ययन करता था,  भजन और नाम स्मरण में भी बालक अत्यंत आनंदित रहता था.
बालक मार्तंड को असत्य से बड़ी घृणा थी और वह हमेशा से ही सत्य धर्म का पालन करता था. एक दिन पाठशाला के प्रधानाध्यापक उसे असत्य बोलने के लिये विवश करते है, पर यह बालक पाठशाला छोड़ देता है पर असत्य-वदन करना स्वीकार नहीं करता है.
11 वर्ष की आयु से ही बालक मार्तंड को गुरु कृपा की तीव्र तृष्णा लगती है. वह् अपने पिता से (जो अनेक लोगों को अनुग्रह दे चुके थे ) अनुग्रह देने का निवेदन करता है.
शंकर शास्त्री कहते है, “ मैंतुम्हें अनुग्रह नहीं दे सकता हूँ क्योंकि तुम्हारा गुरु कोईऔर है, यही दत्तप्रभू का आदेश भी है.”
गुरु प्राप्ति के लिए बालक मार्तंड (जो उस समय केवल 11 वर्ष का था )ग्रंथ राज गुरुचरित्र के पठनका निश्चय करता है.
एक कमरे को गोमय से लीपकर तैयार किया जाता है, वहाँ दत्तमहाराज की एक मूर्ति प्रस्थापित की जाती है.
सुबह स्नान-संध्यादि से निवृत्त होकर बालक मार्तंड गुरुचरित्र सप्ताह के लिए बैठता है, फल,फुल,गाय के दूध और घी की कटोरियाँसामने रखी जाती है.सामने एक रिक्त आसन भी सद्गुरु के लिए रखा जाता है. एकान्त के उद्देश से पाठ करने से पूर्व कमरे की अन्दर से कुण्डी लगा ली जाती थी. पाठ के दौरान बालक मार्तंड सिर्फ एक समय का अल्पाहार दोपहर में लेता था.
इस तरह पहला साप्ताहिक पाठ हो जाता है और उसकी यथा सांगसांगता भी हो जाती है.
अगले दिन बालक अपने दूसरे साप्ताहिक पाठ का पठन शुरू कर देता है. इस बार अल्पमात्रा में  दिन में एक बार का फलहार ग्रहण किया जाता है, इस पाठ के पूरेहोने के अगले दिनही तीसरे पाठ की शुरुवात कर दी जाती है.
तीसरा पाठ भी हो जाता है, पर सद्गुरु का कोई पता नहीं था,  इसलिए अगले दिन चौथे पाठ का श्रीगणेश कर दिया जाता है.
यह पाठ सिर्फ अल्पमात्रा में गाय का दूध पीकर किया जाता है.बालक मार्तंड, संत नामदेव की तरह प्रतिबद्ध था,दत्त भगवान ‘या तो तारो या फिर मार ही डालो’ ऐसी उसकी भावना थी.
पर इस पाठ में भी सद्गुरु की प्राप्ति नहीं होती है, इसलिए तुरंत ही पाँचवाँ पाठ आरम्भ कर दिया जाता है.
पाँचवाँ पाठ भी पूरा हो जाता है पर उद्देश्य अप्राप्त ही रहता है, इसलिए छटे पाठ की शुरुवात हो जाती है. यह पाठ सिर्फ तुलसीपत्र केभक्षण पर किया जाता है, पर सफलता का अभी भी दूर-दूर तक कोई पता नहीं था. छटे पाठ से भी सद्गुरु की प्राप्ति नहीं होने से सातवाँ पाठ भी शुरू कर दिया जाता है. यह पाठ भी केवलतुलसी दल के भक्षण पर किया जाता है.
इससे बालक को अत्यंत दुर्बलता आजाती है, पर बालक अपनी धुन का पक्का था, उसकी जिह्वापर सतत दत्त नाम रहताथा.
यह कोई आसान तपस्या नहीं थी, जरा सी भी क्षुधा व तृष्णा के बढ़ते ही मनुष्य को क्रोध आ जाता है. सिर्फ साधारण मनुष्यों की तो छोड़िये, परीक्षित राजा जैसे धर्मात्मा पुरुष भी इन्हीं क्षुधा व तृष्णा के आवेग के प्रभाव सेमहर्षि-अपमान जैसा प्रमाद कर बैठते है.
पर बालक मार्तंड को तो अर्जुन की तरह लक्ष्य प्राप्ति के सिवा कुछ और तो दिख ही नहीं रहा था. बालक मार्तण्ड् के तो त्रिविध प्रकार के तप घटित होते जाते है. आखिर सातवें सप्ताह का अंतिम दिन आता है, यह कार्तिक मास की पूर्णमासीकी तिथि थी, दिन के बारह बज जाते है और मध्यान्न का सूर्य  एकदम मस्तक के ऊपर आ जाता है, ग्रंथराज गुरुचरित्र की आखिरी पंक्ति उद्गारित कर दी जाती है पर सद्गुरु का तो कही से कही कोई पता ही नहीं था. कमरे की कुण्डी अन्दर से लगी रहती है.
कमरे में ही निराश होकर बालक रोने लगता है. उसके आँसुओं का तो मानो सैलाब ही बहने लगता है.तभी उस बालक के कानों पर एक कोमल स्वर पड़ता है, “बालक !”
आँसुओं से डबडबाई आँखों से बालक अपनी दृष्टि उस आवाज की तरफ घुमाता है, सामने सद्गुरु के लिए रखे आसन पर साक्षात टेम्बेस्वामी विद्यमान दिखाई दे रहे थे. दृश्य अद्भुत था, स्वप्न है या जाग्रति है, कुछ क्षणों के लिए तो यह भी समझ में नहीं आ रहा था.
तभी फिर से दूसरा स्वर गुंजायमान होता है, “बालक!..”
अब वह बालक सावधान हो उठता है, श्रीस्वामी प्रत्यक्ष खड़े है इस बात की उसे प्रचिती भी हो जाती है,पर क्या कहना है, क्या करना है इसकी सूझ नहीं पड़ती है.
फिर मधुर स्वर से श्रीस्वामी कहते है, “वत्स, क्यों हमारा पाचारण किया ? इतना कठोर तप करने की क्या जरूरत थी ? तुम्हारे अंतर में क्या अभिलाषा है ?”
अपने करो को जोडकर श्रीस्वामी के चरण कमलों की तरफ दृष्टीक्षेप करकर बालक मार्तंड उत्तर देता है, “ हे ईश्वर  ! सद्गुरु की प्राप्ति हो इसलिए यह यत्न करा था.”
श्रीस्वामी उस बालक को विराजित होने का निर्देश देकर कहते है,” तुम्हारे ह्रदय का हेतु मुझे अवगत है और इसीलिए मुझे ब्रह्मावर्त से दौड़कर यहाँ आना पड़ा.“
ब्रह्मावर्त जिसका दुसरा नाम बिठूर भी है, यह आज कानपुर जिले के अंतर्गत आने वाला एक शहर है.बिठूर से तराना की दूरी लगभग ७०० किलोमीटर है , श्रीस्वामी वहाँ से निमिष मात्र में बालक मार्तंड के आराधन कक्ष में प्रकट हो जाते है.
इसके बाद बालक मार्तंड श्री चरणों को कस कर पकड़ लेता है और सद्गुरु का यथा सांग पुजन करता है.
इसके बाद वह बालक अपने पिता को लिवा लाता है. सुज्ञ शंकर शास्त्री एक ही क्षण में सम्पूर्ण वस्तुस्थिति को समझ जाते है.तत्पश्चात दोनों पिता-पुत्र अपने सद्गुरु की आरती करते है, उन्हें गाय के दूध व घी की कटोरियाँ समर्पित करते है.
श्रीस्वामी संतुष्ट होकर बालक को  “स्वामी भव” ऐसा आशीर्वाद देते है. बाद में अपनी छाँटी को बालक के चारों और लिपटाकर उसके कान में गुरुमंत्र देते है. फिर श्रीस्वामी बालक के भ्रूमध्य में अपनी तर्जनी लगा देते है, बालक मार्तंड निजानंद में डोलने लगता है, बालक मार्तंड उन्मन होकर निर्द्वन्दावस्था में पहुँच जाता है.
कुछ देर बाद श्रीस्वामी बालक मार्तंड के मस्तक को अपने हात से थपथपाकर उसे जागृत करते है.फिर उसके कान में कहते है,” अरे तुम्हें तो बहुत से कार्य करने है, समाधि में नहीं रमना है. दत्त नाम की गर्जना करकर भक्तों के सुप्त-मानसों को जगाना है, दत्त नामका घोष गाना है, जन-साधारण को भक्ति मार्ग पर लगाना है.”
बालक मार्तंड कृतज्ञ भाव से अपनी स्वीकृति दे देता है, और‘आप सदा मेरे ह्रदयकमल में विराजे’ ऐसा निवेदन भी करता है.
इसके बाद ‘तथास्तु ‘ऐसा कहकर श्रीस्वामी अंतर्धान हो जाते है.
अपने पुत्र की कठोर साधना के परिणाम को देखकर शंकर शास्त्री  का भी ह्रदय हर्ष-विभोर हो उठता है.

यही बालक मार्तंड आगे चलकर इंदौर के प्रसिद्ध संत ‘प. पु. श्री नानामहाराज तराणेकर’ नाम से जाने जाते है, और वे अपने संपूर्ण जीवन में अनगिनत लोगों के ह्रदय कमलों में भक्ति की अलख प्रज्वलित कर उनका उद्धार करते है.

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