Sunday, January 28, 2018

१५ जैसा अधिकार वैसा उपदेश


उस समय श्रीस्वामी का मुक्काम श्री क्षेत्र नृसिंहवाड़ी में था. स्वामीजी का भिक्षा के बाद का भोजन ब्रह्मानंद स्वामी के मठ की उपरी मंजिल पर होता था. स्वामीजी के भोजन के पश्चात उनकी झूठी पत्तल उठाकर उसके नीचे की जमीन को लिप कर साफ़ करने का पुण्य मिले, इस कारण से वहाँ की स्थानीय महिलाओंकी आपस में अकसर तकरार और झड़पें होती रहती थी, कभी-कभी महिलाओं में तो झगड़े की नौबत आ जाया करती थी.
 ‘पता नहीं मेरे भोजन के पश्चात आज क्या होगा’ इस विचार  से श्रीस्वामी को उन दिनों ढंग से खाना भी खवाता था या नहीं !
एक बार एक दूरस्थ महिला की भी श्रीस्वामी की झूठी पत्तल हटाकर श्रीस्वामी की झुठन साफ़ करने की इच्छा हुई, पर यह कैसे संभव था ? स्थानीय महिलाओं को आपस में जूझते देख वह दूरस्थ महिला चुपचाप दूर खड़ी रहती थी.
एक दिन श्रीस्वामी का भोजन संपन्न हो जाता है, और हर बार की तरह महिलाओं में स्वामीजी की झूठीपत्तल हटाकर जमीन साफ़ करने के लिए आपस में  बहस होने लगती है, और यह महिला चुपचाप दूर खड़ी होकर देखती रहती है.
पर इस महिला का भाग्य तो देखिये, स्वयं स्वामीजी उसका मानस जानकर खुद उसके पास आकर कहते है-“अरे देखिये तो, हमारे हाथों से थोडी सी झुठन यहाँ गिर गई है ! क्या आप इसे उठाकर साफ़ कर देंगी ?”
उस महिला के तो जैसे भाग ही जाग उठते है, वह प्रसन्न मुद्रा से उठकर स्वामीजी का उच्छिष्ट उठाकर जमीन साफ़ कर देती है.
श्रीस्वामी न सिर्फ अंतर्यामी थे वरन परा कोटि के भक्त वत्सल भी थे, वे अपने सच्चे भक्तों की छोटी से छोटी सदिच्छा को प्रेम पूर्वक पूर्ण किया करते थे.
जब श्रीस्वामी का गरुडेश्वर में पहला वास्तव्य था, तब आसपास श्रीस्वामी के बारे में किसी को कुछ विशेष जानकारी नहीं थी.
नांदेड निवासी एक अधिकारी की पत्नी बड़े ही धार्मिक स्वभाव की थी, और वह बचपन से ही अपने पिता से साधू-संतो की कथा सुनते हुवें बड़ी हुई थी. तब उस अधिकारी की नियुक्ति श्री क्षेत्र गरुडेश्वर के पास के एक स्थान पर हुई थी.
जब उस महिला को पता चलता है कि गरुडेश्वर में कोई बड़े महात्मा आये हुवें है, तब ‘अपने हाथों से उनकी कुछ सेवा हो’ ऐसा मानस बनाकर वह महिला एक कार्य योजना बनाती है.
वह अपने क्षेत्र के डाकिये से, जो रोज गरुडेश्वर जाता था, कहती है :-“ भैय्याजी, आप रोज दिन का भोजन हमारे यहाँ कर लिया करो, और ये कुछ तरकारिया व फुल गरुडेश्वर में स्वामीजी की सेवा में पहुंचा दिया करो.”
डाकिया इस प्रस्ताव को ख़ुशी से मान्य कर लेता है.
फिर क्या, अब रोज स्वामीजी की सेवा में ताजे फुल और नैवेद्य के लिए ताजी तरकारिया पहुँचने लगी. पर पति देवअधिकारीजी की वृत्ति तो उदासीन थी, वे सोचते थे:-“ ठीक है, श्रीमतीजी जैसा कर रही है, उसे वैसा करने देते है .”
और जब भी श्रीमतीजी गरुडेश्वर को दर्शन के लिए जाने का प्रस्ताव रखती थी, तब अधिकारीजी टका सा उत्तर देते थे:-“ अरे, अपनी पहले से ही माता रानी की उपासना है, हमें उसे ही ठीक से करना चाहिए. अगर स्वामीजी के पास जायेंगे तो दत्त-उपासना गले पड़ जायेगी और उसे हम लोग निभायेंगे कैसे ?”
श्रीमतीजी रुवाती ही जाती है, पर उस समय की महिला अपने पति को क्या उत्तर देती ?  पर उस महिला की जोड़े से स्वामी दर्शन करने की भावना दृढ़ ही होते जाती है, उसकी सेवा भी पूर्ववत चलती रहती है. एक बार काम के निमित्त से अधिकारीजी का गरुडेश्वर जाना होता है.
वैसे संत-दर्शन की इच्छा तो उनकी भी थी, पर वे कोई नई उपासना के गले पड़ने से डरते थे. गरुडेश्वर पहुंचकर किसी तरह अपने साहस को बटोरकर वे डरते-डरते स्वामी दर्शन के लिए जाते है.
स्वामीजी उन्हें पास बुलाकर उन्हें देवी महात्म्य समझाते है. अधिकारीजी को घनघोर आश्चर्य होता है कि स्वामीजी तो दत्त-उपासक है, वे माता रानी का महात्म्य कैसे मुझे बता रहे है ? वापस लौटकर अधिकारीजी बड़े ही आश्चर्य और आनंद से अपनी पत्नी को यह घटना बताते है, फिर क्या, अगली बार वे दोनों जोड़े से स्वामीजी के दर्शन के लिए आते है.
जब वे स्वामीजी के पास पहुँचते है तब स्वामीजी पुराण पर प्रवचन दे रहे थे. स्त्री-धर्म पर व्याख्यान चल रहा था. पुराण समाप्त होते ही स्वामी नदी की तरफ स्नान और अनुष्ठान के लिए जाते है.
अधिकारीजी की पत्नी भी स्वामीजी के पीछे-पीछे जाती है. कुछ देर बाद स्वामीजी ठिठक कर रुक जाते है और वह महिला उनके श्री चरणों में अपना मस्तक रख देती है व कहती है :-“ मैं उन्हें (अधिकारीजी को) लेकर आती हूँ .”
श्रीस्वामी कहते है:- “ ठीक है, तब तक हम यही रुकते है.”
फिर वह दंपति एक साथ स्वामीजी के चरणों में गिर जाती है, और अपने साथ लाया हुवा इत्र श्री चरणों में लगाते है.
अपने आनंद-अश्रुओं से भरी आँखों से वह महिला कहती है:-“श्रीगुरु कृपासिंधु .....”
श्रीस्वामी हास्य मुख से सिर्फ इतना ही कहते है :-“ श्री दत्त समर्थ ”

स्वामीजी की यही विशेषता थी कि वे अपने भक्तों पर कोई भी नियम या उपासना लादते नहीं थे वरन भक्त का मानस व पात्रता देखकर ही उसे उपदेश देते थे.

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