हमारे समाज में अनेक
व्यक्ति धर्मगुरु बनकर समाज में अपना वर्चस्व स्थापित कर सुख-सुविधा युक्त अत्यंतसम्मानजनक
जीवन व्यतीत करना चाहते है, इन लोगों की आध्यात्मिक उन्नति शून्य होती है पर ये अपने
दिखावे से समाज को अपनी झूठीश्रेष्ठता का आभास करवाते है और मौका मिलने अपनेस्वार्थ
पूर्ति के लिए पर समाजके लोगों का शोषण करने से भी नहीं चुकते है ; ऐसे ही लोगोंको
भोंदू बाबा कहा जाता है.
ये भोंदू बाबाबड़े
लम्बे समय से संतों व सज्जनों को परेशान करते आये है, चाहे संत तुकाराम को परेशान
करने वाले मंबाजी हो या आदि शंकराचार्यपर अभिचार प्रयोग करने वाला अभिनव गुप्त, आजकल जहां देखो ऐसे भोंदू
बाबाओं की कमी नहीं है.
श्रीटेंबे स्वामी की
बढती प्रसिद्धि से एक ऐसे ही भोंदू बाबा परेशान थे, वे एक मान्त्रिक को धन देकर श्री
स्वामी पर अभिचारक प्रयोग करवाते है, जिससे श्री स्वामी को अतिसार व रक्तस्राव
होने लगता है.
अभिनव गुप्त ने भी
पूर्व में आदि शंकराचार्य जीपर ऐसा ही अभिचारक प्रयोग करा था जिससे आचार्य
मरणासन्न अवस्था को प्राप्त हो गए थे, कोई सा भी उपचार उन पर काम नहीं कर रहा था. आचार्य के मुख्य शिष्य पद्म पाद ने अपनेयोग
बल से यह प्रयोग अभिनव गुप्त पर ही पलटा दिया था जिससे अभिनव गुप्त मृत्यु को
प्राप्त हो गए और आचार्य की प्रकृति पूर्ववत हो गई.
वेद त्रिगुणयुक्त
होने से अभिचारक प्रयोगों का वर्णन वेदों में भी आता है पर दुर्जन लोग अपने
स्वार्थ के लिए इनका प्रयोग संतों और सज्जनों पर करते है जबकि आततायी व्यक्ति
द्वारा घोर-शोषण होने व अन्य दूसरा कोई भी उपाय न होने की स्थिति में ही ऐसे
प्रयोग करना अपेक्षित होता है.
श्री स्वामी -जो की
स्वयं एक उत्तम वैद्य भी थे- अपने अंतर्ज्ञान से यह बात जान लेते हैकि यह प्रयोग
किसी भी उपचार से ठीक नहीं होने वाला है और यह उनके पश्च-भौतिक देह को त्यागने का
सबब बनेगा.
स्वामी जी उस मान्त्रिक
के पास जाते है. स्वामी जी को देखकर वह मान्त्रिक भय से काँपने लगता है, वह स्वामी
जी के प्रभाव को जानता था , मान्त्रिकको दृष्टि मात्र से भस्म कर देना स्वामी जी
के लिए अशक्य नहीं था.
भयग्रस्त मान्त्रिक
श्री स्वामी के चरणों में लोट जाता है, उसे उठाकर श्री स्वामी उस से कहते है, “तुमनेधन के लोभ से मुझ पर यह अभिचारी
प्रयोग किया है, जिसे मैं तुम पर ही पलटा सकता था पर मुझे इस हेतु के लिए अपनी
शक्ति खर्च नहीं करनी है. वैसे भी मेरे इस जग में थोड़े ही दिन शेष रह गए थे, पर तुमब्रह्म
हत्याके दोष को प्राप्त होकर अनंत यातनाओं के हकदार होने वाले हो, तुम्हारी ये
यातनाये अंशतः: कम हो इसके लिए मैं क्या करूँ, यह तुममुझेबताओ !”
तुलसी दासजी ने कहा
है, “उमा संत की इह ही बढाई मंद करत जो करत भलाई “, अर्थात- शिव शंकर पार्वतीजी से
कहते है-“ हे उमे, संतों का यही स्वभाव है जो उनका अहित करता है उसका भी वे (संत
जन) भला करते है”
संसार के लिए वह मान्त्रिक
व्यक्ति दुर्जन है, पर श्री स्वामी जैसे व्यक्ति-जिनका आभा मंडल आकाश से भी उँचा
हो-के लिए वह भी एक भक्त ही था. इस भक्त की भक्ति विद्रोह-भक्ति थी, यह वही
विद्रोह-भक्ति है जो रावण ने राम से और कंस ने कृष्ण से की थी.
श्री स्वामी, इसीलिए
अपने अंतिम समय में भी अपने इस विद्रोही भक्त का भला सोचते है.
इस अभिचार प्रयोग के
बाद श्री स्वामी का संग्रहणी रोग अत्यंत दुर्धर हो जाता है और इस परिस्थिति में
अपने देह द्वारा कोई विशेष देवोपासना न कर सकने की स्थिति उत्पन्न होने से
श्रीस्वामी अपनी पञ्च भौतिक देह को त्यागने का निश्चय कर लेते है.
स्वामीजी द्वारा
अपने योग बल से देह त्यागने से वह मान्त्रिक ब्रह्म हत्या के दोष को तो
प्राप्त नहीं होता है, पर एक संत पर
अभिचार प्रयोग करने व उन्हें पीड़ा देने के पाप से उस मान्त्रिक का बचना असंभव था.
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