हावेरी स्टेशन से बैलगाड़ी
में बैठकर कुछ लोग सद्गुरु दर्शन के लिए श्री क्षेत्र हवनुर जा रहे थे. इस जत्थे
के साथ एक सुहागन स्त्री भी पैदल-पैदल चल रही थी, जत्थे
के लोगों ने उसे बैलगाड़ी में बैठने की विनती करी तो वह थोड़ी देर के लिए बैलगाडी
में बैठ जाती और उतरकर फिर पैदल चलने लगती, यह
क्रम अनेक बार दोहराया गया. कुछ समय बाद उन लोगो की
गाडी के सामने दो किशोर ब्रह्मचारी आ कर खड़े हो जाते है. ब्रह्मचारीद्वय
विनम्रतापुर्वक आग्रह करते है :-“ यहाँ
हमारे गुरु का आश्रम है और आप सब को भोजन-प्रसादी ग्रहण कर के ही आगे जाना है.”
जत्थे के सभी लोग
गाड़ी से नीचे उतरकर आश्रम-परिसर में प्रवेश करते है,वहाँ देखते है तो
क्या अत्यंत निर्मल परिसर और सब व्यवस्था भी चाक-चोबंद थी. वहाँ
स्थित गणेश-मंदिर में दर्शन के बाद वे लोग कुएं पर हस्त-मुख
प्रक्षालित करके भोजन मंदिर में जाते है. वहाँ की व्यवस्था देखकर वे सब लोग
दंग रह जाते है, भोजन परोसने के लिए केले के पेड़ की लम्बी-लम्बी पत्तियाँ, सुन्दर
सजी हुई रंगोली, खुशबूदार अगरबत्तीया और प्रसन्न मुद्रा से भोजन परोसने वाले किशोर
ब्रह्मचारियों का झुण्ड.
देखते-देखते २४-२५
भोजन की पत्तल सज जाती है. त्रिसुपर्ण मन्त्र की मंजुल ध्वनि के बाद “ॐ नमः
पार्वतिपतये हर हर महादेव” के जयघोष के बाद अन्न-ग्रहण का शुभारम्भ होता है,सब कार्य धीरे-धीरे
सफलतापूर्वक सुसंपन्न होते जाते है. भोजन के पश्चात सब लोगों को ताम्बुल-प्रसादी भी दी जाती है.
उस जत्थे के एक
व्यक्ति को कुतूहल होता है कि यह सब व्यवस्था करने के लिए तो बेहद धन की आवश्यकता
होती होगी पर इस आश्रम को यह धन कौन प्रदान करता है ! ठीक उसी समय एक किशोर
ब्रह्मचारी स्वयं आकर उन्हें कहता है :-“ आइये, मैं आपको हमारा अन्नपूर्णा मंदिर
दिखलाता हूँ.”
शीघ्र ही वे एक
प्रशस्त व साफ़-सुथरे कमरे में पहुँच जाते है,वहाँ चारों तरफ दीवालों
से सटी हुई लकड़ी की रैक पर एक ही क्षमता के अनेक डिब्बे जमे हुवे थे, हर डिब्बे पर
एक कागज की एक चिट्ठी चिपकी हुई थी जिसमें अन्दर रखी गई शिधा-सामग्री के नाम का उल्लेख था. उस कमरे के मध्य में अन्नपूर्णाजी की
एक मूर्ति भी स्थापित थी.
किशोर ब्रह्मचारी जी
आगे कहते है:-“हमसे से जिस की भी बारी होती है वह स्नान के पश्चात यहाँ पर आकर
स्तोत्रपुर्वक अन्नपूर्णाजी की प्रार्थना
करता है और फिर भोजन प्रसादी बनाने में जुट जाता है. डिब्बों में भोजन सामग्री की
व्यवस्था माँ अन्नपूर्णा ही करती है. कभी भी किसी वस्तु की कमी नहीं पड़ती है.”
आज भी पैदल-नर्मदा
परिक्रमा करने वाले भक्तों को परिक्रमा-पथ
पर कई ऐसे आश्रम मिलते है जहां अन्न
का एक दाना भी नहीं होता है पर देखते ही देखते सहस्त्र-भोजन संपन्न हो
जाते है, इसे अन्नपूर्णा सिद्धि कहते है.
इस तरह उस प्रश्न
कर्ता को त्रिसुपर्ण मंत्र व अन्नपूर्णा सिद्धि के प्रभाव के सामर्थ्य का परिचय हो
जाता है. आगे चलकर उस जत्थे के साथ चलने वाली वह सुहागन स्त्री श्री
स्वामी के पास पहुँचकर स्वामीजी को भिक्षा प्रदान करती है. उनकी भिक्षा को ग्रहण
कर स्वामीजी उसे अधोलिखित मन्त्र उपदेशित करते है:-
दरिद्रविप्रगेहे यः शाकं भुक्त्वोत्तमश्रियम्।।
ददौ श्रीदेवदत्तः स दारिद्र्याच्छ्रीप्रदोsवतु।।२।।
दूरीकृत्य पिशाचार्तिं जीवयित्वा मृतं सुतम्।।
योsभूदभीष्टदः पातु स नः संतानवृद्धिकृत्।।३।।
जीवयामास भर्तारं मृतं सत्या हि मृत्युहा।।
मृत्युञ्जयः स योगीन्द्रः सौभाग्यं में प्रयच्छतु।।४।।
ददौ श्रीदेवदत्तः स दारिद्र्याच्छ्रीप्रदोsवतु।।२।।
दूरीकृत्य पिशाचार्तिं जीवयित्वा मृतं सुतम्।।
योsभूदभीष्टदः पातु स नः संतानवृद्धिकृत्।।३।।
जीवयामास भर्तारं मृतं सत्या हि मृत्युहा।।
मृत्युञ्जयः स योगीन्द्रः सौभाग्यं में प्रयच्छतु।।४।।
(पुरे अष्टक के ३ श्लोक )
सद्गुरु कृपा से वह सुहागन
महिला आगे जाकर संपत्ति, संतति, सौभाग्य, सेवा आदि सुखो को प्राप्त कर अन्त में
सायुज्य मुक्ति को प्राप्त हो
जाती है.
श्री अन्नपूर्णा देवी का मन्त्र:-
ॐ नमो भगवति
माहेश्वरि अन्नपूर्णे |
मम अभिलाषितं अन्नं
देहि देहि ||
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