Sunday, December 31, 2017

1 ग्रंथराज गुरुचरित्र का महत्त्व

उस समय टेंबे स्वामी का वास गरुडेश्वर में था. वहाँ पर एक ६-शास्त्रों में निपुण विद्वान ब्राह्मण स्वामीजी के सानिध्य में वेद व उपनिषदों पर चर्चा करते थे. संस्कृत ग्रंथों के प्रति उन्हे बड़ा ही आदर था पर प्राकृत भाषा में लिखे ग्रंथों को वे दरकिनार किया करते थे. वहाँ गरुडेश्वर में अनेक भक्तजन दत्त मूर्ति व स्वामीजी के सामने बैठकर प्रासादिक ग्रंथ गुरुचरित्र का पारायण किया करते थे, पर ये ब्राह्मण देवता उन पाठ करने वालों को कमतर आंकते थे, पर उनकी स्वामीजी के सामने कुछ बोलने की हिम्मत भी नहीं होती थी.
अनेक मास बीत जाते है पर ब्राह्मण देवता वे-वेदांत की ही  चर्चा में ही उलझे रहे और उन्हें कभी भी श्रीग्रंथ गुरुचरित्र पढ़ने की इच्छा हुई ही नहीं. स्वामीजी के समाधिस्थ होने के बाद ब्राह्मण देवता का मन गरुडेश्वर में लगता नहीं था क्योंकि अब उनसे  वेद-चर्चा करने के लिए वहाँ पर कोई भी नहीं था, इसलिए वे अपने गाँव लौटकर सपत्नीक निवास करने लगते है.
एक-दो वर्षों के बाद उनकी पत्नी गंभीर रूप से बीमार पड जाती है, अनेक वैद्य-डाक्टरों के इलाज हुवे, तंत्र-मन्त्र हुवा पर उनकी पत्नी की तबीयत सुधरने का नाम ही नहीं लेती थी. इतने उपनिषद पढ़ने के बावजूद भी उनके मानसिक व उनकी पत्नी के शारीरिक कष्ट ख़त्म होने का नाम ही नहीं ले रहे थे. वे थक हार के निराश होकर बैठ जाते है.
एक रात्रि को उनके स्वप्न में टेंबे स्वामीजी आकर कहते है- “अरे, गुरुचरित्र ग्रन्थ में क्या रखा है ? हम तो उपनिषद पढ़ने वाले है ! “
अगले दिन काफी सोच-विचार करने के बाद ब्राह्मण देवता को सूझ पड़ी कि गुरूजी ने अपने को आधि (मानसिक कष्ट व रोग) व व्याधि (शारीरिक कष्ट व रोग) से छूटने का उपाय बताया है. फिर क्या ब्राह्मण देवता अपने पडोसी कुटुंब को अपनी पत्नी की देखभाल की जिम्मेदारी सौंप कर सीधे गरुडेश्वर का रास्ता पकड़ लेते है. अपने मुख से दत्त भगवान का नाम स्मरण करते हुवे व अपना ध्यान दत्त-प्रभु की ओर लगाकर वे गरुडेश्वर पहुँच जाते है. वहाँ जाकर उन्होंने श्री चरणों में साष्टांग दंडवत कर अपराध क्षमा प्रार्थना करते है.
अगले दिन वे नर्मदा माई में स्नान करके अपना आन्हिक ब्रह्मकर्म सुसंपन्न कर लेते है, फिर वे श्री गुरु के समाधि-मंदिर के सामने बैठकर श्री ग्रंथ गुरुचरित्र का पूजन करके गुरुचरित्र सप्ताह का श्रीगणेश कर देते है.
ब्राह्मण देवता पहले से ही संस्कारी ब्राह्मण परिवार में जन्मी हुई आत्मा थे, ऊपर से उनके द्वारा श्री गुरु के दर्शन व गुरु सेवा भी हुई थी, फिर क्या जैसे ही उनका गुरुचरित्र का पाठ आगे बढ़ने लगा, उनके ह्रदय में आनंद बढ़ने लगा और उनकी चित्तवृत्ति सद्गुरुमय होने लगती है, वे आत्मस्वरूप में लीन होने लगते है.
जब देह की ही वृत्ति न हो तो फिर अपनी पत्नी का स्मरण कहा से होगा ? पर गुरु तो ठहरे गुरु, उन्हें अपने भक्तों व उनके परिवार की चिंता तो रहती ही है. जैसे-जैसे विप्रवर का पाठ आगे बढ़ता गया, उधर उनकी पत्नी को आराम मिलता जाता है, सातवें दिन तो वह माता जो महीनों से खटिया से जकड़ी हुई थी, वह उठकर बैठ जाती है. धीरे-धीरे उन्हें मानसिक स्वास्थ्य भी प्राप्त होने लगता है. वे अन्न ग्रहण करने लगती है जिससे उनकी शारीरिक दुर्बलता भी जाने लगती है.
ब्राह्मण देवता का पारायण पूरा होते ही उन्हें टेंबे स्वामी का साक्षात दर्शन-लाभ होकर कृपा-प्रसाद भी मिल जाता है. घर लौटकर आने पर उनकी पत्नी की सुधरती हुई प्रकृति देख वे आनंदित हो गए, उनकी भक्ति और दृढ़ हो जाती है. ब्राह्मण दम्पति के इस तरह सारे दुःख व कष्ट मिट जाते है.
श्रीग्रंथ के कम-से-कम १५ पंक्तियाँ नित्य-पठण करने का उन्होंने नियम भी बना लिया था.
यह गुरुचरित्र श्रीग्रंथ अत्यंत प्रासादिक है और महज प्राकृत भाषा में होने के कारण किसी को भी इसके महत्व पर शंका नहीं करना चाहिए. विधि पूर्वक व यम-नियम का पालन कर पाठ करने वाले व श्रवण करने वालों की अगर शुद्ध-मनोभूमिका होगी तो प्रसाद तो अवश्य मिलेगा ही.

श्रीग्रंथ गुरुचरित्र कामधेनु है और इस ग्रन्थ को साष्टांग दंडवत है.

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_परम प्रासादिक मन्त्र  “*दिगम्बरा दिगम्बरा  श्रीपाद वल्लभ दिगंबरा* टेम्बे स्वामी के  ह्रदयकमल  में स्फुरित हुवा था और आज यह मन्त्र हर दत्तभक्त की जिव्हा पर चढ़ा हुवा है. वे टेम्बे स्वामी जिनके दत्तावतार होने  का अनुमोदन स्वयं दत्त प्रभु ने अनेक भक्तजनों से किया है, उन दत्त स्वरूप महात्मा के जीवन से संबंधित दिव्य कथाओं का संकलन अर्थात *वासुदेव लीलामृत* सभी दत्तभक्तों के हितार्थ प्रस्तुत किया गया है. दत्त भक्तों को इस दिव्य एवं अमोघ मन्त्र से अवगत कराने वाले श्री टेम्बे स्वामी के चरणों में कोटि-कोटि नमन_.

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