स्वामीजी का वास नर्मदा
तट पर स्थित होलकर संस्थान के अंतर्गत आने वाले चिखलदा नामक स्थान पर था. उस स्थान
की एक रहवासी ब्राह्मण कन्या का विवाह इंदौर शहर निवासी एक युवक
से हुवा था. शहरी तौर-तरीके से जीने वाले पति को गाँव की यह कन्या
पसंद नहीं थी. वह सदा उस कन्या की उपेक्षा किया करता था, अपने
पति के इस रुखे व्यवहार से तंग आकर वह कन्या चिखलदा में अपनी माता के पास आकर रहने
लगती है.
वह कन्या अपनी माता के
साथ श्रीगुरुदर्शन के लिए आया करती थी. वहाँ पर नूतन-विवाहित जोड़ो को एक-साथ गुरु
चरणों की पाद्य-पूजा करते देख उसका मन विक्षोभ से भर उठता था, उसे
लगता था कि काश वह भी अपने पति के साथ श्री गुरु की इस तरह चरण-वंदना
कर पाती तो उसका जन्म कृतार्थ हो जाता, पर
वह संकोच वश यह बात किसी से भी कह नहीं पाती थी.
प. पु. डोंगरे महाराज
भी कहा करते थे कि अगर पति व पत्नी एक साथ
अगर शिव का पुजन करें तो शिव अधिक प्रसन्न होते है.
अनेक दिन बीत जाते है, पर
कृपासिंधु सद्गुरु से कोई बात कभी छुपी रह सकती है क्या ?
एक बार जब वह कन्या स्वामी
दर्शन करने आई तो स्वामीजी ने उसे अपने पास रखी संकष्टहरण स्तोत्र ( घोरात्कष्टात्
स्तोत्र -श्रीपाद श्रीवल्लभ त्वं सदैव ) की
एक प्रती देकर कहा :-“ बेटी, तुझे पढ़ते तो आता है ना ?
यह सिर्फ स्तोत्र नहीं वरन प्रसाद है , इसका श्रद्धा से पाठ किया करो.”
उन दिनों
स्त्री-शिक्षा को महत्व नहीं दिया जाता था व इसी कारण से अनेक बहने पठण-वाचन नहीं
कर पाती थी.
पर सौभाग्य से इस
कन्या को वाचन विद्या अवगत थी. उसने श्रद्धा से संकष्टहरण स्तोत्र का पठण शुरू किया. आखिर २०-२५ दिनों के बाद उसके पति को
अपनी पत्नी की याद आई. पति देव इंदौर से पत्र भेजते है जिसमें उनके चिखलदा आने का उल्लेख था, ४
दिनों के बाद पति खुद चिखलदा आते है. जो स्थान कभी उन्हें
एक पिछड़ा हुवा क़स्बा लगता था वही स्थान उन्हें अपनी पत्नी के सानिध्य में रमणीय लगने
लगा. यही गुरुकृपा व संकष्टहरण स्तोत्र का माहात्म्य है.
जल्दी ही उस दंपति ने एकसाथ
स्वामीजी के चरणों की षोडश-उपचारों के साथ यथा-युक्त भक्ति पूर्वक अर्चना करी, पाद्य
पूजा होते समय टेंबे स्वामी ने स्मितहास्य युक्त मुख से उस कन्या से पूछा:-“ क्यों
बेटी, मनोकामना पूरी हुई कि नहीं ?”
उस कन्या को समझ में आ
गया कि स्वामी अंतर्यामी है और बिना कहे ही उन्होंने मेरे मन की बात जानकार मुझे
रामबाण उपाय भी बतला दिया व इस बात से उसके आनंद का पार ही नहीं रहता है. आगे
चलकर यह दंपति स्वामीजी के अनन्य भक्त होते है व उनका गृहस्थाश्रम
धन्य हो जाता है.
।। *घोरकष्टोद्धरणस्तोत्रम्* ।।
(अन्वय व
संक्षिप्तार्थ)
*श्रीपाद श्री वल्लभ त्वं सदैव, श्रीदत्तास्मान पाहि देवाधिदेव ।
भावग्राह्य क्लेशहारिन
सुकीर्ते, घोरात्कष्टात उध्दरास्मान नमस्ते* ।।१।।
अन्वय: भो देवाधिदेव, श्रीदत्त, श्रीपाद
श्रीवल्लभ, भावग्राह्य, क्लेशहारिन्
सुकीर्ते, त्वं सदैवास्मान् पाहि, अस्मात,
घोरात्कष्टात् उध्दर ते नम: ।।१।।
संक्षिप्तार्थ: हे
देवाधिदेवा श्रीदत्ता, श्रीपादा,
श्रीवल्लभा, भावग्राह्या – क्लेशहारका
सुकिर्ते, तुं सर्वदा आमचे रक्षण कर. आमचा या घोर कष्टातून
उध्दार कर. तुला नमस्कार असो. ।।१।।
.
*त्वं नो माता, त्वं पिताप्तो धिपस्त्वं, त्राता योगक्षेमकृत,
सदगुरुस्त्वम् ।
त्वं सर्वस्वं, नः प्रभो विश्र्वमूर्ते, घोरात्कष्टात उध्दरास्मान नमस्ते* ।।२।।
अन्वय: हे अप्रभो
विश्र्वमुर्ते, त्वं नो माता त्वं
न: पिता त्वं न: आप्त: त्वं नो अधिप: त्वं न: योगक्षेमकृत् त्वं न: सर्वस्वं
अस्मान् घोरात्कष्टादुध्दर ते नम: ।।२।।
संक्षिप्तार्थ: हे
अप्रभो (नाहि प्रभु ज्याला, तो
अप्रभु म्हणजे सर्वप्रभु) सर्वप्रभो विश्र्वमुर्ते तू आमची माता, पिता, मालक, योगक्षेम
चालविणारा सद्गुरु व सर्वस्व आहेस; म्हणुन आमचा या घोर
कष्टातून उद्धार कर. तुला नमस्कार असो. ।।२।।
.
*पापं तापं व्याधि माधिं च दैन्यं, भीतिं क्लेशं त्वं हराशु त्वदन्यम् ।
त्रातारं नो वीक्ष
ईशास्तजूर्ते, घोरात्कष्टात
उध्दरास्मान नमस्ते* ।।३।।
अन्वय: हे ईश त्वं
पापं तापं व्याधिं आधिं दैन्यं भीतिं क्लेशं च आशु हर, हे अस्तजुर्ते त्वदन्यं त्रातारं नो वीक्षे
अस्मान् घोरात कष्टात् उद्धर ते नम: ।।३।।
संक्षिप्तार्थ: हे
ईश्वरा, तू आमचे पाप, ताप,
शारीरिक व्याधी, मानसिक आधी, दारिद्य्र, भीती व क्लेश यांचे सत्वर हरण कर. हे
पीडा नाशका, तुझ्यावाचून अन्य त्राता आम्हाला दिसत नाही.
याकरिता आमचा या घोर संकटातून उद्धार कर. तुला नमस्कार असो. ।।३।।.
.
*नान्यस्त्राता नापि दाता न भर्ता, त्वत्तो देव त्वं शरण्योकहर्ता ।
कुर्वात्रेयानुग्रहं
पूर्णराते, घोरात्कष्टात
उध्दरास्मान नमस्ते* ।।४।।
अन्वय: हे देव
त्वत्तोन्यस्त्राता न, दाता
न, त्वं शरण्य : अकहर्तासि, हे आत्रेय,
अनुग्रहं कुरु हे पूर्णराते घोरात्कष्टादस्मानुध्दर ते नम : ।।४।।
संक्षिप्तार्थ: हे
देवा, आम्हास तुझ्याहून दुसरा त्राता नाही. दाता
नाही. भर्ताही नाही. तू शरणागत-रक्षक व दु:खहर्ता आहेस. हे अत्रेया, आमच्यावर अनुग्रह कर. हे पुर्णकामा, घोर संकटापासून
आमचा उद्दार कर. तुला नमस्कार असो. ।।४।।
.
*धर्मे प्रीतिं सन्मतिं देवभक्तिं, सत्संगाप्तिं देहि भुक्तिं च मुक्तिम् ।
भावासक्तिं
चाखिलानन्दमूर्ते, घोरात्कष्टात
उध्दरास्मान नमस्ते* ।।५।।
अन्वय: हे
अखिलानंदमुर्ते दे, धर्मे
प्रीतिं सन्मतिं भक्तिं सत्संगाप्तिं भुक्तिं मुक्तिं भावासक्तिं च देही, अस्मान् घोरात्कष्टादुध्दर ते नम: ।।५।।
संक्षिप्तार्थ: हे
अखिलानंदकारकमुर्ते देवा, आम्हाला
धर्माचे ठिकाणी प्रीती, भुक्ति, मुक्ति
व भक्तिचे ठिकाणी आसक्ती दे. सर्व घोर कष्टातून आमचा उद्धार कर. तुझे चरणारविंदी
आमचे शतश: प्रणाम असो. ।।५।।
*श्र्लोक पंचक मेतद्यो लोकमंगल वर्धनम् ।
प्रपठेन्नियतो भक्त्या
स श्रीदत्तप्रियो भवेत्* ।।
अन्वय:
लोकमङ्गलवर्धनमेतच्छलोकपंचकं नियत: । य: भक्त्या प्रपठेत् स श्रीदत्तप्रियो भवेत्
।।६।।
संक्षिप्तार्थ: श्री
सद्गुरुमहाराज म्हणतात, “सर्वांचे
कल्याण करणारे हे श्लोकपंचक नियमपुर्वक नित्यश: भक्तिभावाने जो पठण करील तो मनुष्य,
श्रीदत्ताला अत्यंत प्रिय होईल व श्रीदत्तही उत्तरोत्तर या भक्ताला
प्रिय होईल”, असा माझा आशीर्वाद आहे ।।
इति श्रीमद
वासुदेवानंद सरस्वती कृतं घोरकष्टोध्दरणस्तोत्रं संपूर्णम् ।।
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