Sunday, January 28, 2018

३४ कट्टरता और विवेकधर्मिता

एक बार एक आर्य-समाजी व्यक्ति व्यर्थ ही टेम्बे स्वामी से वाद विवाद करने चला आता है, उसकी वेद्विक व आध्यात्मिक पात्रता न होने के कारण श्री स्वामी मौन धारण कर लेते है.
स्वामीजी के मौन से चिडकर वह आर्य-समाजी व्यक्ति उलटे-सीधे बोल बोलने लगता है. इस पर श्री स्वामी शांतिपूर्वक उससे कहते है, “अगर हम पर आपका इतना ही रोष है तो आप हमारी पिटाई करके अपना चित्त शांत कर लीजिये.”
इस पर वह अल्पबुद्धि आर्य-समाजी सच में ही श्री स्वामी पर हात उठाने आगे बढ़ जाता है, पर दत्तप्रभु की प्रेरणा से यह विवाद देख रही एक महिला जोर-जोर से चिल्लाकर अपना विरोध प्रकट  करती है.
उस महिला की आवाज सुनकर और भी शिष्य व भक्तजन आकर अपनी खबर ले लेंगे इस डर से वह आर्य-समाजी भाग खड़ा होता है.

स्वामीजी साक्षात दत्तावतार थे, इस बात का अनुमोदन स्वयं दत्तप्रभु ने अनेक बार किया है, पर ऐसे अवतारी व्यक्ति पर हाथ उठाने की वह मूढ़ आर्यसमाजी व्यक्ति सोच भी कैसे सकता था ?
कुछ आर्य-समाजी वेदों को सर्वोपरि मानते है पर वेदों का अर्थ उनके हिसाब से ही होना चाहिए और जो यह न माने उस पर वे रुष्ट हो जाते है.
वे लोग यह बात भूल जाते है कि आर्य समाज के संस्थापक महर्षि दयानंद ने उन्हें विष देने वाले रसोइये पर करुणा दिखलाते हुवे उसे स्वयं आर्थिक सहायता देकर नेपाल पलायित कराया  था ताकि वह उनके भक्तजनों के कोप के का भाजन ना बने.
बात सिर्फ किसी एक समाज तक सीमित नहीं है, सभी महान व्यक्तियों द्वारा स्थापित पन्थो या संघटनो  में ऐसे ही अल्पबुद्धि और कट्टर लोग कर्ता-धर्ता बनकर समाज को रसातल की ओर ले जाने लगते है.
आने वाले समय में सिख समाज के गुरु-पद के लिए बलिदानी व योग्य लोगो का अभाव होगा इसी कारण सिक्खों के गुरु गोविन्द सिंघजी ने दूरदृष्टिपूर्वक ग्रन्थ साहिब को ही गुरु का दर्जा देकर समाज का भविष्य सुरक्षित करा था.
समर्थ रामदास ने भी गद्दी-परम्परा न चलाकर अपने ग्रन्थ ‘दासबोध’ को ही मार्गदर्शक समझकर विवेकपूर्ण व्यवहार करने की अपने भक्तो को सलाह दी थी.
शास्त्रों में “नारायण परा वेदा” कहा गया है अर्थात वेदों का परमोच्च उद्देश्य सिर्फ और सिर्फ नारायण की प्राप्ति ही है; फिर ऐसे वेदों के आधे-अधूरे ज्ञान का क्या फायदा जो मनुष्य रूप में सामने खड़े नारायण (श्री स्वामी) को पहचानना तो दूर उन पर हाथ तक उठाने को प्रवृत्त कर देता हो ?
यह केवल कट्टरता और ‘विवेकधर्मिता का अभाव’ है.
जो वेद न समझा सके उसे समझाने के लिए उपनिषद अर्थात वेदांत आये और वेदांत का सार ही श्रीमद्भगवद्गीता है और इसी गीता के वचन “वासुदेव: सर्वं इति” अर्थात हर जगह ईश्वर से व्याप्त है, हर जीव में ईश्वर व्याप्त है; गीता के इस बोध वाक्य को ही वह आर्य समाजी अपने आचरण में नहीं ला सका था.
यह वही कट्टरता है, जिसके कारण दुर्योधन कौरव सभा में भगवान श्रीकृष्ण के बोध वचनों से चिडकर भगवान को ही को बंदी बनाना चाहता था.
दुर्योधन कहता था:-
|| जानामि धर्मं न च मे प्रवृत्ति: जानामि अधर्मं न च मे निवृति: ||
अर्थात, मैं  धर्म को जानता हुँ पर उसमे मेरी प्रवृत्ति ही नहीं होति, मैं अधर्म को भी जानता हुँ पर उससे मेरी निवृत्ति नहीं होती है.
यह वही कट्टरता है जिसके कारण वेदों में निपुण रावण अपना और अपने कुल का नाश करवा लेता है पण देवी सीता को मुक्त नहीं करता है. ऐसे ही पढेलिखे कट्टर लोगो को समर्थ रामदास ने पढ़तमूर्ख कहा है.
इसी कट्टरता के बढ़ते-बढ़ते पुरा विश्व आतन्कवाद् और असहिष्णुता से ग्रस्त हो गया है.
ये लोग नास्तिक नहीं होते है वरन उच्च कोटि के आस्तिक होते है पर ये अपनी ही समझ  और कृति को सही मानते है और अन्य लोगो से भी उसे मनवाने का प्रयत्न करते है.
शास्त्रों में अंधगजन्याय का उल्लेख आया है, जिसके अनुसार चार अंधे व्यक्ति एक हाथी को टटोल-टटोल कर उसका वर्णन करते है.
कोई उसकी पूँछ को छूता है तो कोई उसके पैर को, तो कोई उसकी सूंड को पकड़ता है, तो कोई उसके पेट को छूकर उसका वर्णन करता है. सभी अपने वर्णित रूप को ही सत्य मानकर दूसरों को झुटलाते हुवे आपस में ही लढने लगते है. आजकल धर्म के नाम पर होने वाली लढाईया भी ऐसे ही धर्मांध व्यक्तियों के कारण हो रही है जबकि सभी धर्म आखिर में एक ही शक्ति के पास ले जाते है जिसे भगवान, खुदा, ईश्वर, यहोवा इत्यादि नामों से पुकारा जाता है.
संतो की विवेकधर्मिता क्या होती है, यह कोई श्री टेम्बे स्वामी से सीखे ! श्री स्वामी कर्ममार्गी थे पर श्रद्धायुक्त चतुर्थवर्णीय व्यक्ति को भी अपने चरणस्पर्श करने देते थे. वे स्वयं दत्त-उपासक थे पर अपने भक्तो को उनकी (भक्तों की) रूचि की ही उपासना देते थे. वे सन्यासी थे और एक सन्यासी को अपनी माता और गुरु को छोड़कर अन्य किसी को भी नमस्कार करना वर्जित है फिर भी वे साईबाबा को ब्रह्मस्वरुप जानकर उन्हें प्रणाम करते थे.
स्वामीजी कर्ममार्गी थे पर उन्होंने ज्ञानमार्गी, योगमार्गी इत्यादि अन्य मार्गो के भक्तो को भी कृतार्थ किया था. उनके पास आने वाले जैन, पारसी या मुस्लिम भक्तो को भी वे उनके-उनके धर्म के अनुसार उपासना देते थे. वे कभी भी अपने भक्तो की उपेक्षा नहीं करते थे. कर्ममार्गी होने पर भी श्री स्वामी ने भक्तिमार्ग का ही अधिक से अधिक प्रचार करा था क्योंकि भक्ति मार्ग ही एक ऐसा मार्ग है जिसमे सभी वर्ण और आश्रम के लोग ही नहीं वरन सभी धर्म और जाती के लोगो को प्रवेश प्राप्त है.

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