Sunday, January 28, 2018

१० भावग्राह्य श्री स्वामी

पैन गंगा (यह गोदावरी नदी की सहायक नदी है ) नदी के किनारे निजाम  संस्थान के अंतर्गत आने वाले पावनी नामक गाँव  में श्री स्वामी के सानिध्य में एक यज्ञ का अनुष्ठान होता है. अनुष्ठान  के लिए अनेक याज्ञिक-जन दूर-दूर से आये हुवे थे. साथ ही दर्शन के उद्देश्य से भी भक्तों के भी हुजूम के हुजूम आ रहे थे. मुक्त-हस्त से सबको अन्न-प्रसादी की व्यवस्था मानो स्वयं दत्त प्रभु ही कर रहे थे.
वहाँ पर एक मराठी देशस्थ ब्राह्मण परिवार भी दर्शनार्थ आया हुवा था. बड़े-छोटे, बाल-वृद्ध, स्त्री-पुरुषों से भरे इस परिवार में एक तरुण युवक भी था. पूरा परिवार स्वामी जी के दर्शन को जाता था पर यह युवक उनके साथ नहीं जाता था.
कुछ लोगों का शायद स्वभाव ही ऐसा होता है कि वे जन समुदाय में घुल-मिलकर भक्ति नहीं कर सकते पर भक्ति-भाव में वे किसी से कम भी नहीं होते है, उनकी भक्ति की ज्योत एकांत में ही ज्यादा प्रज्वलित होती है.
पर उस  युवक ने चहल-कदमी करते हुवे श्री स्वामी किस रास्ते गंगा स्नान को जाते है यह देख लिया था. वह प्रतिदिन उसी रास्ते में तड़के ही खड़ा हो जाता था और श्री स्वामी को दूर से ही प्रणाम करता था.
कई दिनों तक यही क्रम चलता रहा. एक दिन वह स्वयं होकर स्वस्फूर्त भाव से स्वामी जी के पास जाकर उन्हें दंडवत प्रणाम करता है.
फिर अपना सिर उठाकर देखता तो क्या स्वामीजी स्मितहास्ययुक्त मुख से उसे निहार रहे है. युवक आनंदित हो जाता है, उसकी भक्ति दुगुनी हो जाती है.
आगे चलकर यह युवक एक कुशल चिकित्सक बनता है और अपनी विधा के अनुसार की जाने वाली चिकित्सा के अलावा वह संकष्टहरण स्तोत्र व जय-लाभ स्तोत्र का पाठ स्वयं भी करता था व अपने मरीजो से भी करवाता था.
फिर क्या दवा के साथ जब दुवा भी लगती है तो फिर अपेक्षा से अधिक परिणाम मिलना तो तय ही होता है.
इसी पावनी गाव  में एक चतुर्थवर्णीय व्यक्ति भी रहता था. वह भी स्वामीजी के दर्शन का अभिलाषी था पर उस समय वर्ण-व्यवस्था का बड़ा ही बोल बाला था. इसी के चलते वह व्यक्ति खुलकर भीड़ में घुसकर स्वामी जी के दर्शन नहीं कर पाता था.
एक दिन स्वामी नाव में सवार होकर गंगाजी के उस पार जा रहे थे, यह देखकर वह चतुर्थवर्णीय व्यक्ति बिना कुछ ज्यादा सोचे उफनती हुई नदी ने छलांग लगा देता है और तैर कर नाव की दिशा में आगे बढ़ता है.
जब श्री स्वामीदूसरे किनारे पर पहुँचते है तब वह व्यक्ति भीगे बदन से नदी के बाहर निकलकर हाथ जोड़ते हुवे स्वामी जी के पास आता है.  स्वामी जी का स्मितमुख देखकर उसकी कुछ हिम्मत बंधती है और वह कसकर श्री चरणों को पकड़ लेता है और स्वामी जीआनंद मुख से उस पर कृपा-कटाक्ष डालते हुआ शांत खड़े रहते है.
आसपास के लोग कहते है कि स्वामी जी यह तो चतुर्थवर्णीय व्यक्ति है, और आपने तो इसका स्पर्श कर लिया !
स्वामी जी कहते है:- “उसकी प्रेमयुक्त भावना देखकर मैंने उसका स्पर्श कर लिया अब आप लोगों की भावना देखते हुआ फिर से गंगा स्नान कर लेता हुँ.”
भगवान ने गीता में कहा है कि चारों वर्ण मेरे द्वारा रचे गए है, और ईश्वर द्वारा बनाई किसी भी रचना से अकारण घृणा नहीं करना चाहिए.
फिर वर्ण-व्यवस्था का क्या प्रयोजन है, ऐसा सवाल भी उठता है ?
इसका बहुत ही अच्छा उत्तर शंकराचार्य जी ने दिया है. व्यक्ति क्रिया-भेद करें पर भाव-भेद न करें.
मनुष्य  किसी भी वर्ण का क्यों न हो वह अपने कुछ अंगों को स्पर्श करने के बाद हाथ अवश्य ही धोता है पर अन्य अंगों के स्पर्श पर ऐसा नहीं करता है. ये सारे अंग एक ही शरीर के होते है  पर हर कोई यहाँ क्रिया-भेद करता है.
पर कोईसा भी अंग अगर चोटग्रस्त हो जाता है तो उसपर दवाई अवश्य ही लगाईं  जाती है, अर्थात भाव-भेद नहीं किया जाता है.
जब हर व्यक्ति इस तरह का आचरण करता है तो ईश्वर की बनाई हुई वर्ण-व्यवस्था पर अनावश्यक सवाल नहीं उठाने चाहिए.
इसका सीधा अर्थ यह है की हर किसी को अपने-अपने वर्ण का पालन करना चाहिए पर अगर कोई (जो किसी भी वर्ण का है ) संकट में है, पीड़ा में है, तो उसकी खुलकर मदद करना चाहिए.
और यह वर्ण भी वर्तमान जीवन के लिए ही सच्चे होते है, मूल आत्मा का कोई वर्ण नहीं होता है. आज अमुक वर्ण का व्यक्ति अगले जीवन में वह उसी वर्ण का होगा या नहीं, ये तो छोडिये, मनुष्य होगा भी या नहीं, यह भी खात्रीपूर्वक नहीं कह सकता.
रविदासजी अपने पिछले कई जन्मो में ब्राह्मण थे पर उन्होंने जो ब्राह्मण वर्ण में हासिल नहीं किया वह चतुर्थ वर्ण में हासिल कर लिया. आज हर कोई रविदासजी का नाम जानता है पर क्या उनके पूर्व जन्म के प्रथमवर्णीय नामों को कोई जानता है  ?
स्वामीजी के स्नान करने को कोई अन्यथा न लेवे सिर्फ इसलिए यहाँ थोडा विस्तार किया गया. स्वामीजी हर व्यक्ति को अपनी कृपा से संतुष्ट करते थे.

पावनी गाव निजाम शासन के अंतर्गत आताथा और निजाम लोग मुस्लिम होने के बावजूद स्वामीजी का बड़ा आदर करते थे. स्वामीजी के कार्यों में सहयोग करने हेतु ऊपर से आदेश आता था और अधिकारी लोग कुछ दूरी पर ही अपना तम्बू ठोककर वहाँ रहते थे और व्यवस्था में सहयोग प्रदान करते थे.

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