Sunday, January 28, 2018

१२ सुख के सब रिश्ते-नाते, दुःख में सिर्फ सद्गुरु का सहारा

उस समय श्री स्वामी का मुक्काम नृसिंहवाड़ी में था. स्वामीजी के आने के कारण वहाँ का तो माहोल ही बदल गया था. लोगों की आवाजाहीअत्यधिक होने से टाँगे-वालों ने अपना किराया बढ़ा दिया था, पुजारियों को उनके भोजन के लिए भी समय ना मिले इतनी उनकी व्यस्तता हो गई थी. सुबह तडके ४ बजे से ठीक आधी रात तक मंदिर व ब्रह्मानंदस्वामी के मठ में चहल-पहल रहा करती थी, जहां जाओ वहाँ पर श्री स्वामी की लीलाये कानों पर पड़ती थी, और भक्ति भाव को और भी दृढ़ कर देती थी.
वही मुंबई में एक धनाढ्य कोकणस्थ ब्राह्मण का परिवार सुख से दिन व्यतीत कर रहा था, पर उस ब्राह्मण के ४ पुत्रों में से एक को महारोग कोढ़ की बीमारी हो जाती है.
देशी-विदेशी सारे उपचार होते है पर रोग तो बढ़ते ही जाता है. जीवन का कटु सत्य यह है कि व्यक्ति की पूछ-परख तभी तक होती है जब तक वह स्वस्थ रहर अपनी शुचिता स्वयं कर लेता है. तुलसीदासजी ने भी अपने एक दोहे में कहा है कि अधिक समय का रोगी तिरस्कार को प्राप्त होता है.
यहाँ भी अपने पुत्र की कोढ़ की बीमारी के अत्यंत उच्चावस्था तक पहुँचने से उस रोगी पुत्र के माता-पिता उससे तंग आकर उसे घर से बाहर निकाल  देते है. अब से कोई भी रिश्तेदार और मित्रगण सम्बन्ध  नहीं रखना चाहते थे.
बचपन में सुखी जीवन बिताने वाले उस युवक को यह अच्छी तरह समझ में आ जाता है कि संसार के सारे रिश्ते-नाते कितने खोखले और दिखावटी होते है और मनुष्य का ईश्वर के अतिरिक्त कोई भी सगा नहीं हो सकता है.
उस पुत्र ने बचपन में सुन रखा था कि इस महारोग का नृसिंहवाड़ी में उपशमन होता है. वह तुरंत ही नृसिंहवाड़ी जाने का निश्चय करता है. पर उसके पास रेल के भाड़े के पैसे कहा थे ?  पर वह पैदल ही नृसिंहवाड़ी जाने का निश्चय करता है, राह में भिक्षा मांगकर जो मिले वह खा लेता था और किसी भी पेड़ के नीचे रात गुजार देता था, पर मुख से वह अखंड दत्त-नाम का जप करता था. भगवान की कृपा से  उस पर दयालुता बरसती रही और उसे कही भी भूख का सामना नहीं करना पड़ा.
आखिरकारएक दिन वह नृसिंहवाड़ी पहुँच ही जाता है.
वहाँ जाकर ह औदुम्बर के वृक्ष की परिक्रमा शुरू कर देता है.
स्थानीय लोगों ने एक महारोगी की इस तरह परिक्रमा करने पर आक्षेप लिया और उसकी परिक्रमा भी रुकवा दी, साथ ही उसके लिए पूरे गाँव में कही पर भी भिक्षा पाने पर प्रतिबन्ध भी लगा दिया ताकि वह शीघ्र ही गाँव छोड़कर चला जाये. अब भूख से तड़प-तड़प कर मरने से तो श्रीकृष्णा नदी में डूबकर देहत्याग करना ही श्रेष्ट रहेगा, ऐसा मानस बनाकर वह युवक नदी में देहत्याग करने पहुँच जाता है.
जैसे ही अपने ह्रदय को कठोर कर वह नदी में कूदने ही वाला था कि सामने स्वयं श्री स्वामी प्रगट हो जाते है.
स्वामीजी उसे पास बुलाकर कहते है :- “ अरे बालक, क्यों आत्मघात का घनघोर पातक मोल ले रहे हो ?”
युवक रो पड़ता है और सुबकते-सुबकते अपनी सारीदुःखभरी व्यथा स्वामीजी को सुनाता है. स्वामीजी उसे समझा-बुझा कर अपने प्रगट होने के स्थान पर प्रतिदिन स्नान करने को कहते है.
वह स्थान एक सुनसान जगह पर होने से कोई बिरला ही वहाँ फटकता था और वह महारोगी युवक बिना किसी बाधा के प्रतिदिन वहाँ स्नान करने लगता है. श्रीस्वामी को जो भी भिक्षा मिलती थी उसमें से एक भाग श्रीकृष्णा माँई को भोग लगाकर, बचे हुवे हिस्से में से भोजन प्रसादी उस महारोगी युवक को प्रतिदिन मिलने लगती है.
प्रतिदिन श्रीकृष्णा माई मे स्नान, स्वामीजी की भिक्षा में से प्रसाद और बाकी समय एकांत में दत्तभजन ऐसी उस युवक कीप्रतिदिन की साधना होने लगी.
उसकी श्रद्धा दुगनी होती जाती है, ह्रदय में परमानंद उमड़ने लगता है .
‘मैं इस दुनिया में अकेला हुँ’ ऐसा विचार भी उसके मन में आना बंद हो जाता है.
इस तरह अनेक दिन बीत जाते है. आखिर वह स्वर्णिम दिन भी आता है जब स्नान करकर बाहर निकलते ही वह युवक श्रीस्वामी को अपने सामने पाता है.
अपने हाथों से अपने भीगे शरीर पर से पानी हटाता हुवा वह श्रीस्वामी के चरण स्पर्श करने की तैयारी में था.
तभी एक आश्चर्यजनक बात उसके ध्यान में आती है कि हाथो की रगड़ से उसके शरीर से उसकी चमड़ी के छिलके ही छिलके निकल रहे है.
वह छिलके निकालता जाता है पर छिलके तो निकलते ही रहते है. आखिर में जब किसी जगह से चमड़ी के छिलके निकलना बंद हो जाते थे तो वहाँ पर पूर्णतः बेदाग और स्वस्थ चमड़ी दिखने लगती थी, धीरे-धीरे वह अपने सारे शरीर की रोगग्रस्त चमड़ी निकाल देता है, और फिर से पूर्वतः स्वस्थ व कान्तियुक्त शरीर प्राप्त कर लेता है.
फिर क्या, वह युवक तो अपनी सुध-बुध ही खो बैठता है और उसके ह्रदय में परमानंद हिलोरे मारने लगता है.
वह स्वामी चरणों में नतमस्तक हो जाता है. कुछ देर के बाद सामान्य अवस्था में आने पर स्वामीजी उससे पूछते है : “अब कैसा लग रहा है ?”
वह युवक कृतज्ञ भाव से कहता है कि श्रीगुरुकृपा से वह् इस दारुण महारोग से  छूट गया है और अब आगे जैसी आज्ञा होगी वैसा ही जीवन व्यतीत करेगा.

फिर श्रीस्वामी उसे अपना विभूति प्रसाद दे देते है. आगे चलकर वह युवक स्वामीजी का निस्सीम भक्त बनता है और वह श्रीस्वामी के सामने भजन-गायन व काव्य-पाठ भी करने लगा था.

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