टेंबे स्वामी कर्ममार्ग
के प्रवर्तक थे. कर्ममार्ग के यथायोग्य पालन से मन व इन्द्रियों को संयमित किया
जाता है, जिसके फलस्वरूप मनुष्य कीकामनाये नियंत्रित होकर व्यवसाय-आत्मिका बुद्धि
(परम तत्व ईश्वर की ओर ले जाने वाली बुद्धि ) जागृत होती है और मनुष्य अध्यात्मिक
उन्नति की राह पर चलने लगता है. सरल भाषा में इसे कहा जाए तो अपने धर्म का पालन
करना ही अपेक्षित कर्म होता है. यहाँ धर्म से तात्पर्य मजहब या रिलिजन नहीं है,
क्योंकि जब गीता कही गई थी तब भारतवर्ष में सिर्फ सनातन धर्म ही था. यहाँ धर्म से
तात्पर्य वर्णाश्रम धर्म से है, अपने-अपने वर्ण (ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य व
चतुर्थ वर्ण) व आश्रम (ब्रह्मचर्याश्रम, गृहस्थाश्रम, वानप्रस्थाश्रम व सन्यासाश्रम
) के अनुसार शास्त्र विहित कर्म करना ही धर्म का पालन करना है.
धर्म का दुसरा अर्थ
परोपकार होता है जो सभी वर्ण वधर्म के लोगों से अपेक्षित होता है. भगवद् गीता के
अनुसार प्रत्येक जीव में ईश्वर का अंश होने से किसी भी प्रकार की सुपात्र जीव की सेवाभी
अंततःईश्वर सेवा ही होती है.
अपने वर्णाश्रम धर्म
के अनुसार विहितकर्मों का पालन न करने से मनुष्य प्रत्यवाय दोष (किसी भी कर्म के
अपेक्षित फल के विपरीत प्राप्त होना ) को प्राप्त होता है,इसीलिए कर्ममार्ग की और आँखें
मूंदकर परमेश्वर प्राप्ति का विचार करना भी असंभव होता है.
श्री स्वामी कहते
थे:- “जिस तरह प्रजा द्वारा राजा के अनुशासन को मानने से राजा को संतोष होता है
उसी तरह शास्त्र व नियमों का पालन करने से परमात्मा को संतोष होता है. इसीलिए
शास्त्रों के अनुसार अपने जीवन को व्यतीत कर मनुष्य को अपना कल्याण कर लेना
चाहिए.”
श्री स्वामी स्वयं
भी सख्ती से अपने विहितकर्मों का पालन किया करते थे और अपने पास आने वाले भक्तों
को भी अपने विहित कर्मों के पालन के लिए प्रेरित करते थे.
श्री स्वामी के शरण
में आये लोगों को कर्ममार्ग का ज्ञान करने के लिए श्री स्वामी सदा ही तत्पर रहते
थे, उज्जैन शहर में अपना पहला चात्तुर्मास संपन्न कर श्रीस्वामी वहाँ से तकरीबन ९०
किलोमीटर दूरी पर स्थित सारंगपुर नामक गाँव में कुछ दिनों के लिए अपना वास्तव करते
है.
वहाँ पर पुणे के मूल
निवासी केशव राव नामक एक विधुर व्यक्ति अपनी माँ के साथ रहते थे,
उनका ५ वर्षीय पुत्र
अपने पूर्वजन्म का योगभ्रष्ट साधक था जो पिछले जन्म की शेष रही कुछ वासनाओं की
पूर्ति हेतु ही वर्तमान के अल्पायु जन्म को प्राप्त करता है.
वह अपनी आने वाली
मृत्यु की अग्रिम सूचना सभी गाँव वालो को देता है, साथ ही उन्हें वह सदा ईश्वर का
स्मरण करते हुवे अपने जीवन को सदाचार से व्यतीत करने का सन्देश देकर आसन पर
बैठे-बैठे ही अपने प्राण त्याग देता है.
आगे चलकर इस बालक की
माँ भी लोगों को जीवन की नश्वरता का बोध कराकर अपने स्वयं के ६ मास बाद देह
त्यागने का वक्तन करती है, और ठीक अपने कहेनुसार वह माता पंढरपुर में अपने देह का
त्याग कर देती है.
सांसारिक लोग ऐसी
घटनाओं को दुर्भाग्य के रूप में देखते है पर आध्यात्मिकता का सम्यक ज्ञान रखने
वाले लोग ऐसी घटनाओं को भी ईश्वर की कृपा के रूप में देखते है. मनुष्य का प्रपंच
बुरा नहीं होता है पर प्रपंच में आसक्ति अध्यात्मिक उन्नति में अत्यन्त बाधक होती
है.अनुकूल प्रपंच होने पर भी ईश्वर के अनुसन्धान में अपना जीवन गुजरने वाले विरले
ही होते है !
इन घटनाओं का
ईश्वरीय उद्देश्य साधक को आत्मोन्नति के मार्ग पर लाना होता है और ऐसी घटना होने
पर साधक सामान्यतः अध्यात्मिक मार्ग पर चलने लगते है, पर यहाँ तो केशव राव जी के
शायद कुछ पूर्व कर्म ही उन्हें आत्मोन्नति के मार्ग पर चलने से रोक रहे थे.
ऐसी विलक्षणघटनाओं
के होने के बावजूद भी केशव राव अपना नास्तिक स्वभाव छोड़ते नहीं है और उस समय भी वे
ब्रह्म कर्मकरने के बारे में स्वप्न में भी नहीं सोच सकते थे !
एक बार अपनी माता के
कहेनुसार केशव राव श्री स्वामी को भिक्षा ग्रहण करने के निमित्त आमंत्रित करते है पर
श्री स्वामी उसे साफ़-साफ़ नकार देते हुवे कहते है : ” आप तो ब्राह्मण जैसे दिखते भी
नहीं हो, आपके घर में नैवेद्य-वैश्वदेव जैसा कुछ भी नहीं होता है और इसी कारणमैं
आपके घर पर भिक्षा ग्रहण करने के लिए आने में असमर्थ हूँ “
इसपर केशव राव अपने
पुणे के कर्हाड़े ब्राह्मण होने व अन्य किसी उपयुक्त व्यक्ति द्वारा नैवेद्य करवा
लेने का प्रस्ताव रखते है.
इस पर श्रीस्वामी और
भी नाराज हो जाते है, श्री स्वामी कहते है
कि आप जैसे लोगों का तो मैं मुख दर्शन तक नहीं करना चाहता हूँ, भोजन ग्रहण करना तो
दूर की बात है.
वहाँ उपस्थित लोग
कहते है-“ महाराज, यह केशव राव बड़ा ही दुष्ट आदमी है और अब ये वापस नहीं आने वाला
है !”
इस पर श्रीस्वामी
शांत स्वर में कहते है :-“ देखिये क्या होता है, केशव राव को फिर से तो आना ही
पड़ेगा”
उधरकेशव रावघर लौटकर
अपनी माँ को सारा वृतान्त सुनाते है जिसपर उनकी माताजी अपने पुत्र पर ही भड़क कर
कहती है-“ अगर महाराज हमारे घर भिक्षा के हेतु से नहीं आते है तो हम लोग काहे के
ब्राह्मण ...!”
इस बात पर केशव राव
को उपरति हो जाती है और अब तो कुछ भी कर के श्रीस्वामी को अपने घर पर भिक्षा ग्रहण
करने के लिए लाना है, ऐसा मानस बनाकर वह श्रीस्वामी की सेवा में हाजिर हो जाते है.
आते ही वह
श्रीस्वामी को साष्टांग प्रणाम कर निवेदन करता है-“ महाराज, मैं महा दोषीहूँ, आप
मुझ पर दया करके अपनी शरण में ले लीजिये,आगे से आप जैसा कहेंगे वैसा ही मैं आचरण
करूँगा.”
उसकी ऐसी नम्र व
ह्रदय को द्रवित करने वाली वाणी सुनकर उपस्थित सभी लोगों को आश्चर्य होताहै कि कहाँअपने
पुत्र व पत्नी की अलौकिक मृत्यु के बावजूद अध्यात्मिक राह पर न चलने वाला केशव राव,
आज यह कैसेनम्रता पूर्वक बाते कर रहा है, वह भी कोई प्रापंचिक कामना न लेकर, आज तो
वह सिर्फ आर्तभाव से अपने उद्धार के हेतु से जिज्ञासु बनकर श्री शरण में आया है.यह
तो संत दर्शन व सत्संग की ही महिमा होना चाहिए.
उधर पीछे-पीछे
माताजी भी आ जाती है और श्रीस्वामी से विनती करती है कि इसे ब्रह्मकर्म सिखा
दीजिये और जब यह यथा सांग ब्रह्मकर्म करने लग जाये तब आप हमारे यहाँ भिक्षा ग्रहण
करने आवे.
श्रीस्वामी, उन माताजी
के प्रस्ताव को सहर्ष स्वीकार कर लेते है.
तदुपरांतकेशव राव
सारंगपुर में रहकर संध्या,पूजा, वैश्वदेव इत्यादि ब्रह्मकर्म को भलीभांति सीखकर
उनकायथा सांग आचरण करने लगते है. आगे चलाकर तो केशव रावनित्य कर्म किये बिना तो जल
तक ग्रहण नहीं करते थे, कहने की जरूरत नहीं है कि बादमें श्रीस्वामी केशव राव के
घर जाकर भिक्षा ग्रहणकर उसे कृत्य-कृत्य करते है.
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