उस समय मध्य प्रदेश
के सनावद नामक स्थान पर श्रीस्वामी का वास्तव्य था। स्वामीजी के पूर्वाश्रम के
पिताजी के श्राद्ध का दिवस था. श्रीस्वामी के साथ उनके पूर्वाश्रम के भाई श्री
सीतारामजी और प. पु. योगानंद सरस्वती ( गांडा महाराज ) थे। वे चातुर्मास के दिन थे,
श्राद्ध के लिए रसोई
बनानी थी. श्रीस्वामी ने स्पष्ट निर्देश दे रखा था कि रसोई नदी के तट पर न
बनाकर गाँव में ही बनाई जाए, पर गांडा महाराज ने आग्रह किया,
" अभी कही से भी वर्षा
की कोई संभावना नही दिख
रही है, इसलिए रसोई नदी के तट
पर ही बनवा लेते है.”
इस पर श्रीस्वामी मौन रहते है. श्री स्वामी के
मौन का अर्थ अकसर नकारात्मक होता था पर इस बात पर श्री गांडा
महाराज ज्यादा ध्यान नहीं देते है.
श्राद्ध विधि पूरी हो इससे पहले ही वर्षा आरम्भ
हो जाती है. गांडा महाराज को श्रीस्वामी की बात न सुनने का अत्यंत दुःख होता है,
वे श्रीस्वामी से ह्रदय से क्षमा माँगते है, श्रीस्वामी भी उदार ह्रदय से उन्हें
क्षमा कर देते है.
बाद मेंश्रीस्वामी
की संकल्प शक्ति से वर्षा रूक जाती है, श्राद्ध विधि और उसके पश्चात के सभी कार्यक्रम
भी निर्विघ्न रूप से पार पड जाते है. श्रीरंगावधूत महाराज, श्रीस्वामी के बारे मेंअपनी रचना ‘वासुदेव नामसुधा’ में लिखते है, “ हे
वासुदेव, आप ही इंद्र हो, आप ही चंद्र हो..”
इसवी सन १८९९ में
श्रीस्वामी द्वारका (गुजरात ) में चातुर्मास के निमित्तरूके हुवे थे. इसके पिछले
वर्ष याने १८९८ में वर्षा न होकर दुष्काल की स्थिती उत्पन्न हो गई थी, इस वर्ष भी वर्षा केकोई आसार नजर नही आ रहे थे.
ऐसी परिस्थिती में श्रीनारोपंत
नाम के एक सज्जन २१ ऑक्टोबर १८९९ (आश्विन वद्य सप्तमी शक १८२१) तारीख को
श्रीस्वामी को एक पत्र लिखते है, जिसमे वे लिखते है,” यहा पर बिलकुल भी वर्षा नही
हो रही है, श्रावण वद्य पंचमी के दिन १ इंच वर्षा हुई थी, बस !”
इस तारीख की खुबी यह थी कि यह श्रीस्वामी की जन्म
तिथी थी. जो स्वयं इंद्र हो, सूर्य हो उसके जन्म दिवस पर वर्षा हुवे बिना कैसे रह
सकती हैं?
अगर गहराई में जाकर
इन प्रसंगों का विवेचन करें तो यह समझ में आता है किअपनी साधना के बल पर
श्रीस्वामी ब्रह्मावस्था अर्थात परमात्मा के स्तर पर पहुँच चुके थे. श्रीस्वामी की
ब्रह्मावस्था को स्वयं श्रीदत्त प्रभु ने भी अनेक बार अनुमोदित करा है. श्रीदत्त
के दर्शन की अभिलाषा से कठोर अनुष्ठान करने वाले भक्तों को दृष्टांत देकर स्वयं दत्त
प्रभु कहते थे कि वे वर्तमान में श्रीवासुदेव जी के रूप में अवतरित है, इसलिए आप उन्हीं
के पास जाकर दर्शन का लाभ लेवे.
अष्टधा प्रकृति
ब्रह्म से ही उत्पन्न होकर ब्रह्म की अनुचरी होती और श्रीमद्भगवद्गीता के अनुसार
वह प्रकृति ब्रह्म कीआज्ञा से ही कार्य करती है. पञ्च महा भूत व
मन,बुद्धि,अहंकारइन तत्वों को अष्टधा प्रकृति के रूप में जाना जाता है. श्रीस्वामी
की ब्रह्मावस्था के कारण ही उनके संकल्प मात्र से प्रकृति निर्देशित हो जाती थी.
इन दो प्रसंगो के
अलावा भी श्रीस्वामी ने एक बार नर्मदा जी के एक तट पर कीर्तन समाप्त होने तक दूसरे
तट परआये हुवे शक्तिशाली तूफ़ान को रोक कर रखा था. इन प्रसंगों सें
श्रीस्वामी का ब्रह्म स्वरूप
होना व उनकी किस तरह प्रकृति पर
सत्ता थी, यह सिद्ध होता है.
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