स्वामीजी उस समय
गरुडेश्वर थे.बडोदा शहर के समीप होने से वहाँ के अनेक भक्तों को श्रीस्वामी के
दर्शन करना अत्यंत सुलभ हो गया था.
चान्दोड़ से एक नाव
में बैठकर कुछ बड़ोदा के भक्तजन गरुडेश्वर आ रहे थे.उस नाव में एक विधवा महिला भी
थी. नाव में सवार कुछ व्यक्ति जहांनाम स्मरण में लगे हुवे थे, वही कुछ लोग उस
विधवा महिला कों बिना किसी कारण जली-कटी बातों से अपमानित करते रहते है.
वह अकेली महिला करती
तो भी क्या ? और शिकायत करती तो भी किससे? वह चुपचाप अपना सर झुकाए आँसुभरी आँखेंलिए
बैठी रहती है.
गरुडेश्वर में
श्रीस्वामी के दर्शन करबैठे हुवे इस जत्थे को वहाँ की सेवादार महिला कहती है:-“
देखिये, भोजन तो तैयार है, पर सुबह से काम करते रहने के कारण में अत्यंत थक गई हूँ,
इसलिए पत्तल बिछाना और भोजन परोसने का काम आप लोगों को ही देखना पड़ेगा.”
वे दिन बरसात के
होने के कारण अँधेरा छाया हुवा था. कल-कल करके नर्मदामाई पास में ही बह रही थी.
तभी अचानक वह विधवा
महिला उठती है, नर्मदा जी के तट पर जाकर वह अपना स्नान कर लेती है, इसके पश्चात वह
रसोई घर को झाडू से साफ कर देती है, फिर वह सबके लिए पत्तल लगा देती है, और सोवले
में सबको भोजन भी परोसने लगती है. सब लोग समाधान पूर्वक भोजन करते है.
सबका भोजन संपन्न हो
जाने के बाद वह सबकी झूठन साफ कर देती है, और सबसे आखिर में भोजन करती है.
उस महिला को पीड़ा
देने वाली टोली के सर शर्म से झुक जाते है.
श्रीस्वामी सबको
अपने पैरो का स्पर्श करने नहीं देते थे. सिर्फ कुछ ही भाग्यवान शिष्य, वो भी कुछ विशेष सेवा करने पर इस
पावन-सुख को प्राप्त कर पाते थे, और यह पावन-सुख
भी अधिकांशतः श्रीस्वामी के स्नान के पहले मिलता था.
प्रातःकाल की काकड़
आरती होने के बाद सूर्योदय होने तक श्रीस्वामी पत्र-लेखन किया करते थे, लेखन के
बाद श्रीस्वामी शौच क्रिया करने जाते थे, और यही वह समय था जब भक्तों को उनके
पाद-स्पर्श करने का सौभाग्य मिलता था.
एक दिन श्रीस्वामी
थोड़े जल्दी ही अपनी नित्य-क्रिया के लिए निकल जाते है, नित्य-क्रिया के बाद बाद
नदी पर मुख-मार्जन इत्यादि के लिये स्वामीजी आते है.
एक बार इसी समय को
साधकर कुछ लोग उनकी तरफ आते है.
उन लोगों में एक
गुजराती महिला भी थी. जैसे ही उन लोगों की स्वामीजी पर नज़र पड़ती है, वह महिला
तुरंत ही नदी में जाकर एक डुबकी मार कर बाहर आ जाती है, वह महीना मार्गशीर्ष का होने
से ठंड कड़ाके की थी, फिर भी वह महिला नदी में स्नान कर लेती है. उसके बाद वह महिला
श्रीस्वामी के श्री चरणों में अपना सर रखने ही वाली थी कि श्रीस्वामी कहते है:-“
अरे, अभी हमारा स्नान नहीं हुवा है !”
वह महिला कहती है:-“श्री
चरण सदा ही तीर्थ स्वरूपी है. इस देह की तो चार धाम यात्रा हो गई है.”
यह कहने के बाद वह
महिला श्री चरणों में अपना मस्तक रख देती है. उस महिला के आँखों से बह रहे आँसुओं
से स्वामी के चरणों का अभिषेक होता है.
श्रीस्वामी स्मित वदन से
कहते है –“ श्री दत्त समर्थ
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