इसवी सन १९१३ में
श्रीस्वामी का एक चातुर्मास होलकर संस्थान के अंतर्गत आने वाले श्री क्षेत्र
चिखलदा में था. उस दिन श्रावण मास की संकष्ट चतुर्थी थी. भोजन के उपरांत सभी भक्त
लोग इकट्ठे बैठे हुवे थे, तभी श्रीस्वामी का वहाँ आगमन होता है.
श्रीस्वामी एक
वृतांत सुनाते है, ‘हम एक बार तेलंगाना गए
थे, तब एक विद्यार्थी आकर हमें नमस्कार करता है, और पुछने पर कि नमस्कार किस हेतु
से किया, वह बताता है कि पास आ चुकी परीक्षा में उत्तीर्ण होने के हेतु से नमस्कार
किया है. हमने उसे फिर ‘भाव फले’ ऐसा प्रत्युत्तर दिया. वह विद्यार्थी संस्कृत की तृतीया
परीक्षा में बैठ रहा था, और उसे पहली दोनों परीक्षाओं में पारितोषिक भी मिल चुके
थे. हमने उससे आगे पूछा कि पहली दो परीक्षाओं में कौन से ग्रन्थ थे, इस पर वह
बताता है कि प्रथमा में रामानुजाचार्य की गीता थी और द्वितीया में माधवाचार्य की
गीता थी और इस बार श्रीमत् आदिशंकराचार्यजी की गीता है.’
स्वामीजी आगे पूछते
है, ‘ इन तीनों गीताओं में आपके मन पर कौन सी गीता ने सर्वाधिक प्रभाव करा है ?’
इस पर वह विद्यार्थी
भ्रमित हो जाता है.
इस बात पर हम उस
विद्यार्थी को एक कथा सुनाते है.
एक गुरु के पास दो
शिष्य बारह वर्षों तक व्याकरणादि विभिन्न विषयों का अध्ययन करते है. शिक्षा
समाप्ति के बाद गुरूजी दोनों से ‘तत्वमसि’ शब्द से क्या बोध होता है, ऐसा पूछते
है.
पहला शिष्य सहज
उत्तर देता है, ‘ वह परमात्मा आप ही हो’ जबकि दूसरा शिष्य अपनी बुद्धि लगाकर उत्तर
देता है, ‘ आप उस (परमात्मा ) के हो ’.
पहले शिष्य का उत्तर
अद्वैत था तो दूसरे का उत्तर द्वैत था, एक
ही गुरु के सानिध्य में रहने के बावजूद दो शिष्यों की सोच में ऐसा फर्क कैसे पड सकता है ?
इसका उत्तर यह है कि
मनुष्य का अंतःकरण दर्पण के समान होता है, अगर दर्पण साफ़ हो तो गुरु द्वारा
प्रदत्त बोध सही-सही अंतःकरण में उतर जाता है और अगर अंतःकरण ही मलीन हो तो बोध
थोड़े-बहुत फेर-बदल के साथ अंतःकरण में उतरता है.
इसीलिए अंतःकरण को
स्वच्छ रखना हर मनुष्य का कर्तव्य है, और अंतःकरण को निर्मल रखने के लिए कर्म
मार्ग ही सहायक है, पर यह कर्म मार्ग भी साधन है, साध्य नहीं; इसीलिए कर्म मार्ग
का अतिरेक भी नहीं करना चाहिए,कर्म मार्ग का परमोच्च उद्देश्यसिर्फ ईश्वर प्राप्ति
है, यह नहीं भुलना चाहिए.
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