Sunday, January 28, 2018

१३ सर्वज्ञ श्री स्वामी


जब श्रीक्षेत्र हवनुर में स्वामीजी का चातुर्मास था, तब एक अमीर महिला अपने मुनीम के साथ श्रीस्वामी के दर्शन करने आती है. श्रीस्वामी के चरण स्पर्श के बाद मुनीमजी अपनी सेठानी की दारुण समस्या से स्वामीजी को अवगत कराते है-“
स्वामीजी, जब भी सेठानी जी गर्भधारण करती है तब गर्भधारण के ५-६ महीनों के पश्चात उनके पति पर एक रहस्यमय दौरा पड़ता है, पति देव का तो दिमाग ही घूम जाता है, और जब तक बालक जन्म लेकर जीवित रहता है, तब तक दौरा बना ही रहता है; उस बालक के निधन होने के बाद पति देव फिर से सामान्य हो जाते है.
अभी तक ऐसा ३-४ बार हो चूका है, अब फिर से सेठानी जी पेट से है, और पुरानी यादों से उनके प्राण ही सूखे जा रहे है.इस संकट से छुटकारा दिलाने में स्वामी चरण समर्थ है.”
ऐसा कह कर वह मुनीमजी स्वामीजी को साष्टांग दंडवत करते है. पीछे खड़ी सेठानी जी जार-जार आंसू बहा रही थी.
सेठानी जी श्री चरणों की और देखकर प्रणाम करती है, और फिर बड़ी आशा के साथ श्रीस्वामी के उत्तर की प्रतीक्षा करती है.
इसी बीच मुनीमजी फिर कहते है:- “सेठानी जी की २५ -३० हजार रुपयों की मिल्कियत है, पर इस समस्या के कारण किसी को भी एक कौर निवाला भी चैन से खाते नहीं बनता है. (उस समय के हिसाब से यह रकम बहुत बड़ी थी)”
स्वामीजी कहते है:- “अरे ! जिनकी वजह से इतना वैभव प्राप्त किया उनके लिए कही मंदिर या तीर्थ में कुछ सेवा रखी है क्या ?
साल में एक बार भी श्राद्धपक्ष में उनके मुख में अन्न का एक निवाला भी पडता है क्या ? “
सेठानी जी व उनके मुनीम को समझ में आ जाता है कि सेठ-सेठानी ने  जिनसे विरासत में इतनी संपत्ति प्राप्त की है उनलोगोंका श्राद्ध न किये जाने से उन्हें ऐसे दुर्दिन और निर्वंशता का अभिशाप मिला है और अब उन्हें  अपनी इस भूल को सुधारना चाहिए.”
सेठानी जी कृतज्ञ भाव से स्वामीजी से कहती है कि उनके पति को सामान्य करने में श्री चरण समर्थ है.
स्वामीजी तत्काल उत्तर देते है कि श्री दत्त महाराज समर्थ है.
दो साल बाद उसी परिवार के ४ सदस्य स्वामीजी से मिलने आते है जिसमें सामान्यावस्था में लौटे उनके पति व एक नवजात शिशु भी शामिल थे. सेठानी जी बालक को श्री चरणों में रखती है.
स्वामीजी तत्काल श्री दत्त ऐसा नामोच्चार करते है, और फिर बालक का नाम  भी यही रखा जाता है.
इसी मुक्काम में नाशिक से एक भक्तों का समूह स्वामी दर्शन के लिए आता है. उस समूह में एक  प्रौढ़ा स्त्री भी थी, वह प्रौढ़ा स्त्री नित्य-नियम से स्वामीजी के सामने ताजे फल व सूखे मेवों से भरा एक थाल रखती थी.
श्रीस्वामी उस भोग का नैवेद्य दत्त प्रभू को दिखाकर सब भक्तों में प्रसाद के रूप में बटवा देते थे.
वहाँ उपस्थित स्थानीय भक्तों में से एक भक्त उपस्थित जमाव के सामने फुसफुसाता है:- “अरे इस महिला को तो देखो बड़ी अपनी भक्ति का प्रदर्शन करती है ! पर इसके घर में जाकर देखो, इसकी बहु के क्या हाल है ? बेचारी के सर में भी दर्द होता है तो उसे एक सौंठ का टुकड़ा भी नसीब नहीं होता है.”
दुसरा व्यक्ति कहता है :-“पर गुरु तो अंतर्ज्ञानी है, उन्हें क्या ये सब पता नहीं चलता है ? या फिर उन्हें इस महिला को समझाने में संकोच हो रहा है ?”
तीसरा व्यक्ति कहता है:-”अगर मैं स्वामीजी के स्थान पर होता तो इस महिला की ऐसी खबर लेता कि इसे इस जनसमुदाय में सर उठाना भी मुश्किल हो जाता !”
कुछ दिन बाद वह प्रौढ़ा स्वामीजी से कहती है :- “स्वामीजी, अब हम लोग वापस अपने शहर जा रहे है. कृपया कुछ उपदेश कीजिये.”
स्वामीजी श्री दत्त ऐसा नामोच्चार करके अपने पास रखे दत्त स्तोत्र की एक प्रति उस महिला को देते है.
वह प्रौढ़ा कहती है:-“पर स्वामीजी मुझे तो पढ़ना ही नहीं आता है !”
स्वामीजी गाँव के स्थानीय लोगों की और देखते हुवे कहते है:-“ अरे, पर आजकल की बहुओं को तो पढ़ते आता है न ?”
इस उत्तर से न सिर्फ उस महिला को वरन वहाँ उपस्थित स्थानीय लोगों को भी शिक्षा मिलती है.
प्रौढ़ा समझ जाती है कि स्वामीजी उससे अपनी बहु के प्रति अच्छे व्यवहार की आशा रखते है. इधर गाँव के स्थानीय जन भी समझ जाते है कि सद्गुरु से कुछ छुपा नहीं रहता है पर उनके कार्य करने का तरीका अलग होता है.
वे किसी भी कार्य के लिए सदैव उचित अवसर की प्रतीक्षा करते है, और तब तक कोई उन्हें लाख उलाहना दे, वे अपनी तितिक्षा को अक्षुण्ण बनाये रखते है.
अगली बार जब वह महिला स्वामीजी से मिलने आती है तब उसके साथ उसका बेटा और बहु भी थे.
पर अब उस महिला का अपनी बहु के प्रति व्यवहार कमाल का बदल चुका था.

गाँव के स्थानीय लोगों भी स्वामीजी की कृति का बोध अच्छी तरह से हो गया था.

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