इसवी सन १९०९ में कन्यागत (हर 12 साल में आने वाला एक
पर्व) के समय श्रीस्वामी का वास्तव्य नृसिंहवाड़ी में था. उधर सातारा में एक सज्जन एक
अपने पेट दर्द की समस्या से काफी त्रस्त थे, उन्होंने काफी देशी-विदेशी इलाजकरेंथे
पर उन्हें कुछ भी फायदा नहीं हुवा था. इन सज्जन के कानों पर जब श्रीस्वामी की
कीर्ति पड़ी तो उन्होंने श्रीस्वामी के दर्शनों के लिए आने का निश्चय कर लिया.
रास्ते में उन्हें अनेक तरह के विचार आने लगे कि श्रीस्वामी का
सोवला तो बड़ा कड़क होगा और मैं ठहरा द्वितीयवर्णीय महाराष्ट्रियन व्यक्ति, क्या मुझे दर्शन का लाभ होगा भी या नहीं ? अगर हो भी
गया तो पुजन आदि करने को मिलेगा भी या नहीं ?
खैर,जैसे-तैसे नृसिंहवाड़ी में पहुँचकर वे अपने एक मित्र के यहाँ उतरते है.
अपने मन की दुविधा को उन्होंने अपने मित्र के साथ साझा करा, पर मित्र से भी कोई सकारात्मक उत्तर न मिलने से उनकी मानसिक स्थिति विचलित हो उठी, उनकी निराशा अपने चरम सीमा पर पहुँच चुकी थी,
रात भर वे घोर-उद्विगनावस्था से गुजरते हुवे काटते है.
सुबह उठकर वह सज्जन प्रातर्विधि के लिए बाहर निकलकर कुछ ही दूर तक जाकर देखते है तो क्या! सामने श्रीस्वामी साक्षात सामने खड़े हुवे थे. वह सज्जन आश्चर्यचकित हो जाते है.
श्रीस्वामी कहते है :-“यहाँ काटे बहुत है, एकाध काटा हमारे पैरो में भी धस गया है, देखिये आप से निकलता है क्या ?”
ऐसा कहकर श्रीस्वामी अपना पैर ऊपर उठाते है.
वह सज्जन तो पहले स्वामी चरण को अपने माथे से लगाकर फिर श्रीस्वामी की चरण-धूल को अत्यंत आदर पूर्वक अपने मस्तक पर धारण करते है, फिर धीरे से अपने हाथों से काँटों को टटोलकर बड़े ही आहिस्ता से उन सब काँटोंको निकाल देते है, फिर अपने आनंदअश्रुओ से श्री चरणों का अभिषेक करते है.
कुछ देर बाद जब उन सज्जन की दृष्टी श्रीस्वामी के मुख कमल पर पड़ती है तब श्रीस्वामी स्मित वदन से कहते है:- “आज सिर्फ दही-चावल खायिये और फिर अगले दिन मंदिर में आइये .”
उन सज्जन के तो आनंद की सीमा ही नहीं रहती है, वह अपनी स्नान-संध्या व आन्हिक आदि संपन्न कर के स्वामी-आज्ञा अनुसार दही-चावल का सेवन करते है. भोजन करते समय उनका मन थोडा सा आशंकित था कि भोजन के उपरांत उन्हें होने वाला पेट दर्द फिर से न शुरू हो जाये, पर उनकी आशंका निर्मूल सिद्ध होती है, भरपेट भोजन करने के बावजूद उनके पेट में शूल नहीं उठता है.
अगले दिन स्नानादि करके वे सज्जन स्वामी दर्शन के लिए मंदिर में जाते है, पर उन्हें स्वामीजी एक खुले मैदान में एक जनसमूह के सामने बैठे मिलते है. स्वामीजी जन-समुदाय की समस्याएं सुनकर उन्हें उस पर आध्यात्मिक मार्गदर्शन कर रहे थे.
इन सज्जन से स्वामीजी पूछते है :-“ कहिये, कल कैसा रहा आपका स्वास्थ्य?”
सज्जन अत्यंत आनंदपूर्वक बताते है कि सद्गुरु कृपा से भोजन के उपरान्त भी पेट में कोई शूल नहीं उठा.
स्वामीजी फिर उन्हें अपनी विभूति देते है और कहते है:-“इसका सेवन नियमित रूप से करें, श्री दत्त सब कुशल मंगल करेंगे”
रोग मुक्ति होने व सद्गुरु कृपा प्राप्त होने से इन सज्जन का तो जीवन ही धन्य हो जाता है.
खैर,जैसे-तैसे नृसिंहवाड़ी में पहुँचकर वे अपने एक मित्र के यहाँ उतरते है.
अपने मन की दुविधा को उन्होंने अपने मित्र के साथ साझा करा, पर मित्र से भी कोई सकारात्मक उत्तर न मिलने से उनकी मानसिक स्थिति विचलित हो उठी, उनकी निराशा अपने चरम सीमा पर पहुँच चुकी थी,
रात भर वे घोर-उद्विगनावस्था से गुजरते हुवे काटते है.
सुबह उठकर वह सज्जन प्रातर्विधि के लिए बाहर निकलकर कुछ ही दूर तक जाकर देखते है तो क्या! सामने श्रीस्वामी साक्षात सामने खड़े हुवे थे. वह सज्जन आश्चर्यचकित हो जाते है.
श्रीस्वामी कहते है :-“यहाँ काटे बहुत है, एकाध काटा हमारे पैरो में भी धस गया है, देखिये आप से निकलता है क्या ?”
ऐसा कहकर श्रीस्वामी अपना पैर ऊपर उठाते है.
वह सज्जन तो पहले स्वामी चरण को अपने माथे से लगाकर फिर श्रीस्वामी की चरण-धूल को अत्यंत आदर पूर्वक अपने मस्तक पर धारण करते है, फिर धीरे से अपने हाथों से काँटों को टटोलकर बड़े ही आहिस्ता से उन सब काँटोंको निकाल देते है, फिर अपने आनंदअश्रुओ से श्री चरणों का अभिषेक करते है.
कुछ देर बाद जब उन सज्जन की दृष्टी श्रीस्वामी के मुख कमल पर पड़ती है तब श्रीस्वामी स्मित वदन से कहते है:- “आज सिर्फ दही-चावल खायिये और फिर अगले दिन मंदिर में आइये .”
उन सज्जन के तो आनंद की सीमा ही नहीं रहती है, वह अपनी स्नान-संध्या व आन्हिक आदि संपन्न कर के स्वामी-आज्ञा अनुसार दही-चावल का सेवन करते है. भोजन करते समय उनका मन थोडा सा आशंकित था कि भोजन के उपरांत उन्हें होने वाला पेट दर्द फिर से न शुरू हो जाये, पर उनकी आशंका निर्मूल सिद्ध होती है, भरपेट भोजन करने के बावजूद उनके पेट में शूल नहीं उठता है.
अगले दिन स्नानादि करके वे सज्जन स्वामी दर्शन के लिए मंदिर में जाते है, पर उन्हें स्वामीजी एक खुले मैदान में एक जनसमूह के सामने बैठे मिलते है. स्वामीजी जन-समुदाय की समस्याएं सुनकर उन्हें उस पर आध्यात्मिक मार्गदर्शन कर रहे थे.
इन सज्जन से स्वामीजी पूछते है :-“ कहिये, कल कैसा रहा आपका स्वास्थ्य?”
सज्जन अत्यंत आनंदपूर्वक बताते है कि सद्गुरु कृपा से भोजन के उपरान्त भी पेट में कोई शूल नहीं उठा.
स्वामीजी फिर उन्हें अपनी विभूति देते है और कहते है:-“इसका सेवन नियमित रूप से करें, श्री दत्त सब कुशल मंगल करेंगे”
रोग मुक्ति होने व सद्गुरु कृपा प्राप्त होने से इन सज्जन का तो जीवन ही धन्य हो जाता है.
इसी दौरान कोल्हापुर से एक महिला भी स्वामीजी के दर्शन के लिए आई हुई थी. वह महिला काफी लम्बे समय से संग्रहणी रोग से ग्रस्त थी,वैद्य राज की दवा तो चलती थी पर कोई विशेष लाभ नहीं होता था. स्वामीजी उस महिला की व्यथा सुनकर उसे बताते है:-“ दवाई वही रखिये परन्तु उसमें हमारी थोड़ी सी विभूति मिलाकर सेवन करियेगा.“
उस महिला के व्याधि मुक्त होने पर श्रीस्वामी उनसे दत्त प्रभु की पादुकाओं पर महा पूजा करवाते है और ‘भगवान पर ऐसी ही भक्ति रखियेगा’ ऐसा कहते है.
वह महिला जो लाख उपाय करने के बावजूद स्वस्थ नहीं हो पा रही थी, वह श्रीस्वामी की कृपा से रोगमुक्त हो जाती है.यह बात जानकार उस महिला के परिवार वाले भी मनुष्यों के प्रयत्नों के ऊपर भी सद्गुरु कृपा करके कुछ होता है, यह बात अच्छी तरह मानने लगे. इस तरह उस महिला का पूरा परिवार भक्ति के कल्याणकारी मार्ग पर चलने लगता है.
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