Sunday, January 28, 2018

२५ भक्ति का वाहन और चालक सतगुरु


श्रीस्वामी की आज्ञा से नाना महाराज अनेक तीर्थयात्रा  करते है, उनका मन श्रीस्वामी के चरणों के दर्शन के लिए लालायित हो उठता था पर गुरु की आज्ञा के बिना यह संभव नहीं था. श्रीस्वामी के समाधि लेने के बाद नाना महाराज खिन्न हो उठते है, उन्हें  श्रीस्वामी के दर्शन से वंचित रह जाने का अपार दुःख होता है.
आखिर श्रीस्वामी के समाधि लेने के कुछ वर्षों बाद उन्हें आखिरसद्गुरु की पुण्यतिथि के निमित्त गरुडेश्वर आने की आज्ञा मिल ही जाती है. इसके लिए वे इंदौर आकर अपने गुरु बंधु श्रीताम्बे स्वामी के यहाँ उतरते है. ताम्बे स्वामी उनका यथा योग्य स्वागत करते है. दोनों गुरु बंधु प्रसन्न भाव से भजनादि में इतना रम जाते है कि इंदौर स्थानक से उनकी रेलगाड़ी छूट जाती है.
नाना महाराज किसी तरह रतलाम स्थानक तक आते है, पर रेलगाड़ी वहाँ से भी छूट जाती है, अब मुंबई को जाने वाली फ्रंटियर मेल ही केवल बचती थी ; पर गरुडेश्वर को पुण्यतिथि पर तो कैसे भी पहुँचना ही था, इस हेतु से मुख में दत्त नाम का स्मरण कर नाना महाराज उसी ट्रेन में सवार होने की सोचते है . पर वहाँअत्यधिक भीड़ होने से रेलगाडी में सवार होना अत्यंत ही दुष्कर था, पर एक डिब्बे के सामने भीड़ न होने से उसमें प्रवेश करने में नाना महाराज को सफलता मिल ही जाती है. वह प्रथम श्रेणी का डिब्बा था, और उस समय अत्यंत अमीर लोग और उच्च-अधिकारी वर्ग ही ऐसी श्रेणी में प्रवास किया करते थे. ऐसे डिब्बे में चढ़ना -वो भी बिना टिकट के- यह प्रसंग सज्जन लोगोंके लिए बड़ा ही भयावह होता है. वह रात्रि का समय था. नाना महाराज चुपचाप एक कोने में श्रीस्वामी का स्मरण करते हुवे खड़े हो जाते है.
वही डिब्बे के सभी लोग शयन की तैयारी में थे. तभी वहाँ लेटे हुवे एक दक्षिण भारतीय व्यक्ति की दृष्टि नाना महाराज पर पड़ती है. न जाने क्या, श्रीस्वामी की प्रेरणा कहे या और कुछ, वह व्यक्ति अपनी शायिका से उतरकर निचे आकर नाना महाराज से करबद्ध होकर अपनी टूटी-फूटी हिंदी भाषा में निवेदन करता है, “ आइये, हमारे स्थान पर चलिए !”
नाना महाराज को घनघोर आश्चर्य होता है क्योंकि आरक्षित डिब्बों में चढने वाले साधारण-टिकटकेयात्रियों को भी अकसर दुर्व्यवहार का सामना करना पड़ता है और वे तो बेटिकट है. पर श्रीस्वामी की कृपा समझकर नाना महाराज उस व्यक्ति के बगल में जाकर बैठते है. नाना महाराज के अंतर में उस समय अखंड दत्त नाम स्मरण चल रहा था,फिर भी  कुछ भय तो होता ही है, ‘आगे क्या होगा’ यह तो सिर्फ श्रीस्वामी ही जानते थे !
देर रात को रेलगाड़ी बड़ोदा स्थानक के पास आती है, और तभी एक टिकट निरीक्षक उस डिब्बे में आ जाता है. जब वह आकर नाना महाराज से टिकट के बारे में पूछता है तब पास ही बैठे दक्षिण भारतीय व्यक्ति द्वारा एक पास दिखलाया जाता है.
वह दक्षिण भारतीयरेल विभाग का एक बड़ा अधिकारी था, उसके पास पूरेपरिवार का देश में कही पर भी जाने का पास था. वह दक्षिण भारतीयव्यक्ति, नाना महाराज का परिचय अपने पिताश्री के रूप में करवाता है, टिकट-निरीक्षक संतुष्ट होकर चला जाता है.
बड़ोदा स्थानक पर दक्षिण भारतीय व्यक्ति भी नाना महाराज के साथ निचे उतरता है, और वहाँ के अधिकारियों से बात कर नाना महाराज को सकुशल स्थानक के बाहर छुडवा देता है. फिर वह दक्षिण भारतीय व्यक्ति नाना महाराज को नमस्कार कर अपने डिब्बे में चला  जाता है,और जाते-जाते वह दक्षिण भारतीय व्यक्ति नाना महाराज को कहता है, “ आपको गरुडेश्वर जाना है ना ? बाहर आपको रामराव टाँगे वाला मिलेगा, आप को उसी के साथ आगे जाना है. वह सकुशल आपको अपने गंतव्य तक पहुँचा देगा."
स्थानक के बाहर अनेक टाँगे वाले खड़े रहते है. अचानक से एक टाँगे वालास्वयं उनके पास आकर कहता है, “ मुझे रामराव टाँगे वाला कहते है, मैं आपको प्रताप नगर तक सकुशल छोड़ दूंगा”
नाना महाराज एकदम से चौक उठते है, “यह व्यक्ति मुझे कैसे जानता है ? इसे कैसे मालूम हुवा कि मुझे कहा जाना है ?”
आखिर इसे श्रीस्वामी की कृपा समझकर नाना महाराज उस टाँगे में जाकर बैठ जाते है. गोहागेट स्थानक पर नाना महाराज उतर जाते है, और अत्यंत समाधान पूर्वक उस टाँगे वाले को उसका मानदेय दे देते है. वहाँ से आगे रेलगाड़ी द्वारा चान्दोड़तक आते है.  चान्दोड़ से नर्मदा-माँ को पार कर गरुडेश्वर जाने के हेतु से नाना महाराज स्नानादि कर वहाँ जाने वाली नाव की प्रतीक्षा करते हुवे नर्मदा तट पर जा बैठते है.
पर जब तक ४०-५० लोगों से नाव भरे नहीं तब तक नावें चलती नहीं थी, और अगर चले तो भी पूरी नाव का किराया लगता था जो देना नाना महाराज के लिए अशक्य था.तभी वहाँ मुंबई से गरुडेश्वर जाने वाला एक श्रद्धालुओं का जत्था आता है, उस जत्थे के लोग स्वयं ही होकर नाना महाराज से कहते है, “ पंडितजी, हमारे साथ गरुडेश्वर चलिए, हम सभी भी वहाँश्रीस्वामी की पुण्यतिथि के निमित्त जा रहे है,”नाना महाराज सहर्ष इसे वासुदेव कृपा समझकर उन लोगों के साथ चल देते है.
पर राह में अकस्मात् एक संकट आ जाता है, तिलकवाडा के पास नाव नर्मदा जी के एक भँवर में फंस जाती है, वह गोधुलिबेला का समय था. सभी लोग घबरा उठते है, पर शांति के सागर नाना महाराज अपना धैर्य बनाये रखते है, और वे श्रीस्वामी का स्मरण कर सभी से कहते है, “ दत्त नाम का स्मरण करिए, वह स्मर्तृगामी हम सब का रक्षण करेगा...”
सभी लोग नाना महाराज के शांत व मधुर स्वर सुनकर जोर-जोर से दत्त नाम की गर्जना करते है, और कुछ देर बाद ही नाव सकुशल उस भँवर से बाहर निकल जाती है. कुछ समय बाद रात्रि में वे सब सकुशल गरुडेश्वर पहुँच जाते है.
वहाँ पर अलग-अलग स्थानों से आये अनेक भक्त गण जमा हुवे थे, यथा सांग पुण्यतिथि के सभी कार्यक्रम पार पड जाते है.
नाना महाराज वहाँ ३ रात्रि तक रहते है. इसी दौरान एक यादव के भेस में आकर श्रीस्वामी नाना महाराज को दूध पिला जाते है और अपनी पहचान प्रकट कर अंतर्धान हो जाते है.
आगे सन १९६१ तक नाना महाराज नियमपूर्वक गरुडेश्वर को पुण्यतिथि के निमित्त जाते है, पर एक साल वहाँ के पुजारी लोग नाना महाराज से अनादर पूर्वक व्यवहार करते है. नाना महाराज चुपचाप खिन्न मन से नर्मदा तट पर श्रीस्वामी का स्मरण करते हुवे बैठ जाते है. इस तरह नाना महाराज वही रात बिताते है.अगले दिन सभी पुजारी लोग खुद ही नाना महाराज को ढूंढते हुवे वहाँ आते है, और कहते है,” कल श्रीस्वामी ने स्वप्न में आकर हमें बहुत ही जोर से फटकार लगाईं और आदेश दिया कि नाना नाम के हमारे शिष्य का पुजन करें....”
इसके बाद सभी पुजारी लोग नाना महाराज का पुजन कर समाधि के उपर की छाँटी उन्हें प्रसाद के रूप में प्रदान करते है.अगले साल १९६२ में नाना महाराजफिर पुण्यतिथि के निमित्त गरुडेश्वर जाने का मानस बनाते है पर यात्रा के एक दिन पहले ही नाना महाराज को दुर्धर ज्वर जकड लेता है और गरुडेश्वर जाना स्थगित हो जाता है.
कई दिनों बाद यह खबर आती है कि गरुडेश्वर जातेसमय कई नावों की दुर्घटना होकर अनेक लोग काल-कवलित हो गए है.
अगर दुर्धर ज्वर नहीं आता तो किसी भी कीमत पर नाना महाराज अपनी यात्रा स्थगित नहीं करते, इसीलिए श्रीस्वामी के पास अन्य कोई उपाय भी नहीं था. यह प्रसंग यह दर्शाता है कि किस तरह सद्गुरु अपने सुपात्र शिष्य की कदम-कदम पर रक्षा करते हैऔर एक साये की तरह उसके साथ चलते है.

नाना महाराज तो एक अधिकारी पुरुष थे पर कथा  पुष्प #५ में हमने देखा है किश्रीस्वामी कैसे अपने साधारण पर सुपात्र भक्तों की भी कदम-कदम पर तीर्थ प्रवास में सहायता करते है.

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