एक स्नातक ब्राह्मण
सज्जन एक अच्छे पद पर नियुक्त थे, उनकी श्रीस्वामी में अपार श्रद्धा थी. जरा सी छुट्टियाँ
मिली नहीं कि वे श्री चरणों में जाकर अपनी सेवा प्रदान किया करते थे. उनका एक
अच्छा मित्र स्वदेशी का आग्रही व्रत धारी था. उस समय देश पराधीन था और स्वतंत्रता
के लिए अनेक प्रयत्न चल रहे थे जिसमें विदेशी वस्तुओं का बहिष्कार भी शामिल था.
एक दिन ये ‘स्वदेशी के भक्त’ ब्राह्मण-महोदय से बहस करने लगे,
‘कहिये,
स्वामीजी के स्वदेशी के बारे में क्या विचार है ?’
ब्राह्मण महोदय ने
अत्यंत प्रांजलतापूर्वक कहा, ‘ स्वामीजी से वाद करने की न तो मेरी पात्रता है और न हि
सद्गुरु से वाद करने की कोई पद्धति होती है. उनकी आज्ञा का प्रेम व आदरपूर्वक पालन
करना ही मेरा परम व्रत है.'
कुछ समय बाद ये
स्वदेशी मित्र भी ब्राह्मण-महोदय के साथ श्रीस्वामी दर्शन को जाते है.
जब ये लोग वहाँ पहुँचते
है तब वहाँ अनेक भक्तजन श्रीस्वामी के उपदेशों को सुनते हुवे बैठे थे.
इन लोगों के वहाँपहुँचते
ही श्रीस्वामी कहते है, ‘ अरे, लोग हमारे पास क्यों आते है ! क्या है, हमारे पास ? बस ये चरखे पर बुने कपडे
से बनी हुई खद्दर की लंगोटी, और क्या ?’
उपस्थित सभी लोगों
के लिए तो यह सिर्फ एक कथन मात्र था पर स्वदेशी मित्र के लिए एक बहुत बड़ा बोध था,
क्योंकि उनका स्वदेशी तो देशी मिलो में बने कपड़ों तक ही सीमित था (अधिकतर कपड़ा मिलें
अमीर सेठ लोगों की हुवा करती थी ) जबकि स्वामी तो गरीब लोगों द्वारा काते हुवे सुत
से बने कपडे की लंगोट पहनते थे, और इसलिए स्वामी की स्वदेशी के प्रति आचरण उन
तथाकथित स्वदेशी मित्र के आचरण से कही श्रेष्ठ
था.
कुछ साल बीत जाने के
बाद ब्राह्मण महोदय सेवानिवृत्त हो जाते है. ‘आजतक की जिंदगी घर-परिवार और नौकरी में व्यतीत हो गई पर अब
आगे का समय अब आध्यात्मिक साधना में व्यतीत होना चाहिये’
ऐसा मानस बनाकर वे सज्जन श्रीस्वामी के सामने प्रस्तुत होते
है.
ब्राह्मण महोदय अपने
साथ बहुत सारे वस्त्र, ताजे फल और सब्जियाँ लेकर गए थे. श्रीस्वामी ने सभी वस्त्रों को वहाँ उपस्थित
लोगों में बटवा दिया और फलों और सब्जियों का भोग दत्तममूर्ती को लगवा दिया.
ब्राह्मण महोदय
श्रीस्वामी को साष्टांग नमस्कार कर उन्हें गुरु-उपदेश मिले ऐसा निवेदन करते है.
श्रीस्वामी
स्मितमुद्रा से कहते है, ‘अरे, पहले जाकर पास के तम्बू आये हुवे साहब से मिलकर तो आइये ! और वहाँ जाकर श्री
का प्रसाद भी दे आइये ’
नागर-ब्राह्मण गुरु-आज्ञा
को शिरोधार्य कर उस तम्बू में जाते है, वहाँ उन्हें एक गुजराती ब्राह्मण मिलते है. आगे बातचीत होने
पर पता चलता है कि वे दोनों बालपन में सहपाठी रह चुके थे,
एक साधारण से कारण से उनकी आपस में बोलचाल बंद हो गई थी;
आगे अपने-अपने नौकरी-धंदे के कारण उनके अलग-अलग शहरों में चले जाने से उनकी बोलचाल
बंद ही रह गई थी.
दोनों मित्रों का
पुराना मन-मुटाव दूर हो जाता है.
इसके बाद नागर
ब्राह्मण अपने गुजराती मित्र से कहते है, ‘ मेरे सद्गुरु ने आपके लिए प्रसाद भिजवाया है. आप कृपया इसे
ग्रहण करें. ‘
गुजराती सज्जन कहते
है,
‘ हाँ ,
बड़े दिनों से सुना है कि कोई सन्यासी आये हुवे है और एक बडे
जनसमुदाय को रोज दर्शन के लिए आते हुवे देखता हूँ. मैं भी दर्शन करना चाहता था पर
उनके सन्यासी होने कारण थोडा दुविधा में था; अब जब वे आपके सद्गुरु है और उन्होंने
खुद होकर मेरे लिए प्रसाद भिजवाया है तो मुझे उनके दर्शन के लिए अवश्य ही जाना
चाहिये.’
इसके बाद वे गुजराती
सज्जन,
नागर-ब्राह्मण के साथ जाकर स्वामी दर्शन करते है.
श्रीस्वामी ने इस
तरह अत्यंत सहजता से न केवल दो मित्रों के मनों में जमे बरसों के मैल को साफ़
करवाया वरन उनमें से एक सज्जन के मन में उमड़ रही व्यर्थ की दुविधा को भी ख़त्म करवा
दिया.
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