Sunday, January 28, 2018

८ भक्तवत्सल श्री टेम्बे स्वामी

यह कथा इसवी सन १९१3 की है, जब श्री स्वामी का वास्तवश्री क्षेत्रगरुडेश्वर में था. उस समय एक विधवा महिला उनके दर्शन के लिए आई थी, दर्शन करते ही वह मुंग सें भरा एक दोना स्वामीजी के सामने रख देती है. वही पर रसोई बनाने वाली एक महिला भी वहाँमौजूद थी.रसोई बनाने वाली महिला उस विधवा स्त्री पर एकदम-जोर से चिल्लाती है :-“ अरे, तुम्हें क्या इतनी भी समझ नहीं है कि इस मुंग के बड़े-बड़े अंकुर फुट गए है, और अब यह कुछ काम का नहीं है !” पूरा वातावरण एकदम से स्तब्ध रह जाता है.
वह विधवा महिला एकदम रूवांसी हो जाती है पर वह कुछ भी नहीं बोलती है.
धीरे-धीरे सब लोग अपने-अपने कामों में जुट जाते है. स्वामीजी नर्मदा स्नान के लिए जाते समय वह मुंग का दोना अपने साथ ले लेते है, नर्मदा तट पर स्वामीजी स्वयं अपने हाथों से वे मुंग प्रक्षालित कर लेते है.
स्नानादि से निवृत्त होकर स्वामीजी जब वापस लौटते है तो अपने एक शिष्य को वे मुंग का दोना सौंपकर निर्देश देते है कि आज श्रीदत्तप्रभु को इसी मुंग का भोग लगाना है.
उस दिन रात्रि में भजन व धुपारती होने के बाद सब लोगों को मुंग का प्रसाद मिलता है. प्रसाद ग्रहण करने वालों में वह विधवा महिला और उसे डाँटने वाली महिला भी शामिल रहती है.
प्रसाद वितरण के बाद स्वामीजी उस विधवा महिला से पूछते है:-” माताजी, आप कहा से पधारी है ? ”
वह महिला अपनी राम-कहानी सुनाती है:- “मैं अहमदाबाद के पास के एक स्थान पर एक व्यक्ति की रसोई संभालती हूँ. आपकी बहुत कीर्ति सुनी थी. मेरे पास टिकट केभी पैसे नहीं थे, इसीलिए पैदल यात्रा कर यहाँ पर आई थी; खाली हाथ सद्गुरु के पास कैसे आती इसलिए थोड़े से मुंग साथ ले लिए थे, पैदल यात्रा में अधिक समय लग जाने से मुंग अंकुरित हो गए थे, फिर भी श्री स्वामी ने  मेरी भेट का मान रखकर मुझे कृत-कृत कर दिया.”
ऐसा कहते ही उस महिला की आँख भर आती है. वहाँ उपस्थित सभी भक्तों को भी सीख मिल जाती है. गीता में भगवान का वचन है कि प्रेम पूर्वक दिया हुवा पत्ता, फुल,फल या पानी भी भगवान पा लेते है. सद्गुरु भी कोई अन्य न होकर उसी भगवान के प्रगट रूप होते है वे भला प्रेम पूर्वकभेट की हुई वस्तु का अपहार भला कैसे करते ?
और यही सच्चे सद्गुरु की पहचान है,उसे शिष्य सें कोई भी अपेक्षा नही रहती है, सद्गुरू सदैव दाता होते है, भोक्ता नही; वे सिर्फ भक्त के समाधान के लिये भेट वस्तू को स्वीकार करते है. गुरु नानक ने भी अमीर व्यक्ति के व्यंजन छोड़कर एक मेहनतकश गरीब व्यक्ति का रूखा-सुखा भोजन ग्रहण किया था.
इसी वास्तव के दौरान एक शाला-अध्यापक अपनी धर्मपत्नी व पुत्र के साथ वहाँ पर आये हुवे थे. उनके पुत्र के उपनयन संस्कार का समय हो गया था पर धन के अभाव के कारण उसका उपनयन-संस्कार हो नहीं पा रहा था.
उनकी श्रीमतीजी आते-आते ही अन्नपूर्णा गृह (पाकशाला) में जाकर वहाँ रसोई बनाने में अपनी सेवा देनी शुरू कर देती है. उसके बाद वह प्रतिदिन वहाँअपनी सेवा देने लगती है .वही उसके पति इधर-उधर की बातों और विवादों में अपना समय नष्ट करते रहते है.सब भक्तों के भोजन ग्रहण करने के बाद वह महिला स्वामीजी के दर्शन कर तीर्थप्रसाद ग्रहण करने के पश्चात ही भोजन ग्रहण करती थी.४-५ दिन की उस महिला की  प्रेमपुर्वक सेवा होने के बाद स्वामीजी स्वयं उस महिला से कहते है:- “ अरे आपको अपने बेटे का व्रतबंध संस्कार करना है ना ? ये लो धन और यह कार्य जल्दी ही संपन्न करो.”

उस महिला की मनोभाव से सेवा करने के कारण ही अन्तर्यामी स्वामी बिना कुछ कहे उसकी मनोकामना पूरी कर देते है.
_परम प्रासादिक मन्त्र  “*दिगम्बरा दिगम्बराश्रीपाद वल्लभ दिगंबरा* टेम्बे स्वामी के  ह्रदयकमल  में स्फुरित हुवा था और आज यह मन्त्र हर दत्तभक्त की जिव्हा पर चढ़ा हुवा है. वे टेम्बे स्वामी जिनकेदत्तावतार होने  का अनुमोदन स्वयं दत्त प्रभु ने अनेक भक्तजनों से किया है, उन दत्त स्वरूप महात्मा के जीवन सेसंबंधित दिव्य कथाओं का संकलन अर्थात*वासुदेव लीलामृत* सभीदत्तभक्तों के हितार्थ प्रस्तुत किया गया है. दत्तभक्तों को इसदिव्य एवंअमोघ मन्त्र से अवगत कराने वाले श्रीटेम्बे स्वामी के चरणों में कोटि-कोटि नमन_.


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