प्रसंग १:
नरसी गांव में दोपहर के समय एक महिला किसी कारणवश नदी के तट
पर जाती है, तब उसे टेंबे स्वामी अपने गोद में एक ६
महीने के शिशु को लेकर बैठे हुवे दिखते है, वह शिशु अपना अंगूठा चूसते हुवे
श्रीस्वामी को प्रसन्नभाव से निहार रहा था और स्वामीजी भी उसे प्रेम पूर्वक दृष्टि
से मानोंप्रति उत्तर दे रहे थे;यह देखकर वह महिला भी अपना कार्य भूलकर अचरज भरी
दृष्टि से दर्शनलाभ लेती रहती है.
जब श्री स्वामी को उस महिला की उपस्थिति का भान होता है, तब
वह शिशु अंतर्धान हो जाता है, वह महिला भी भावावेश से बेसुध हो जाती है.श्री
स्वामी उस महिला पर पानी के कुछ छीटे मारकर उसे जागृत करते हैऔर उसे भाग्यवान
बताते है क्योंकि उसने साक्षात दत्त प्रभु के दर्शन सहज ही कर लिए थे.
ग्वालियर के पास छाबड़ा नामक गाँवके राम मंदिर में प.पु,
नाना महाराज ने भी ऐसे ही सहजता से राम,लक्ष्मण और जानकी को मंदिर के पुजारी के
साथ गुल्ली-डंडा खेलते हुवे देखा था.
मध्य प्रदेश के चिखलदा गाँव में नरक-चतुर्दशी के एक दिन के
पहिले दत्त महाराज श्रीस्वामी को दृष्टांत
देकर नरक-चतुर्दशी पर उन्हें अभ्यंग स्नान करवाने का आग्रह करते है. सन्यासी होने
कारण श्री स्वामी के लिए अग्निस्पर्श वर्जित था, इस कारण अभ्यंग के लिए गर्म पानी
देने में स्वामीजी असमर्थ थेऔर सुगन्धित तेल आदिएक संन्यासी के पास आता तो भी कहा
से ?
श्रीस्वामी द्वारा विनम्रता पूर्वक अपनी असमर्थता व्यक्त
करने पर दत्तप्रभु रूठ कर नर्मदानदी के पात्र में जाकर बैठ जाते है.
इसके बाद में श्रीस्वामीजी अपने भक्तों के द्वारा श्री दत्त
प्रभु की मनोकामना पूर्ण करवाते है.
प्रश्न यह उठता है कि दत्त महाराज जो गुरुओं के भी गुरु है,
वे यदु महाराज, भार्गव परशुराम और भक्त शिरोमणि प्रह्लाद को भी बोध देने वाले है,
वे भला श्रीस्वामी के साथ ऐसा बालसुलभ व्यवहार क्यों करते है ?
इस प्रश्न का उत्तर हमें गीता के निम्न वर्णित भगवान के वचन
में मिलता है.
*ये यथा मां प्रपद्यन्ते तान् तथा एव भजामि
अहम्* |
भगवद् गीता के चौथे अध्याय के 11 वे श्लोक में भगवान का
उपर्युक्त वचन आता है, जिसका सीधा-साधा अर्थ ले तो, भगवान कहते है-“ जो लोग मेरी
जैसी भक्ति करते है, मैं उनसे वैसा ही व्यवहार करता हूँ”
पर देखा जाये तो भगवान जरा बढ़-चढ़कर ही व्यवहार करते है, अगर
कोई ज्ञानी बनकर भगवान की उपासना करता है तो भगवानमहा ज्ञानी बनकर उसके साथ पेश
आते है,वही अगर कोई अत्यंत भोले भाव से भगवान की आराधना करता है तो भगवान उससे भी
भोले बन जाते है.
संत रामदास स्वामी ने अपने महा ग्रंथदास बोध में लिखा है कि
अगर कोई भगवान से ठगी करता है तो है तो भगवान भी महाठग बन जाते है.
वासुदेव महाराज अर्थात हमारे श्रीस्वामी एक पहुँचे हुवे यति
थे, वेद-विद्या, योग-विज्ञान, मंत्र विद्या आदिपर उनका विलक्षण अधिकार था. वे भगवान
दत्त की तरह कभी भी कही भी प्रगट हो सकते थे, वे उत्तम वैद्य भी थे.
पर ये सब होने के बावजूद उनकी भक्ति एक बालक के समान थी, वे
कभी भी भगवान से कुछ अपेक्षा नहीं रखते थे,गंभीर रूप से अस्वस्थ होने पर भी स्वयं
का उपचार तक नहीं करते थे. जैसे छोटा बालक अपनी कुशलता के लिए अपनी माँ पर निर्भर
होता है, लगभग वैसा ही श्रीस्वामी का आचरण था.सभी छोटे बड़े रोगों और समस्याओंसे
रक्षण करने की जिम्मेदारी दत्त माउली पर ही थी.
श्री स्वामी ‘वासुदेव: सर्वं’ अर्थात ‘सब में वही भगवान
विराजमान है’ऐसी भावना लेकर एक बालक के समान भक्ति व आचरण किया करते थे, और जब
स्वामीजी बालक की तरह व्यवहार करेंगे तो दत्त प्रभु भी शिशु (बालक से भी छोटे) की
तरह ही तो व्यवहार करेंगे ना ?
धन्य है, श्रीस्वामी जिनकी भक्ति के प्रभाव से जगद्गुरु दत्त
प्रभु भी शिशु बन जाते है. पहले ऐसा चमत्कार माता अनसूया ने करा था पर उन्होंने यह
सब अपने सतीत्व के प्रभाव से करा था, पर अपनी भक्ति से प्रभु को शिशु बनाने का
उदाहरण शायद अन्यत्र दुर्लभ है.
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