उस समय स्वामीजी का एक
चातुर्मास तुंगभद्रा नदी के किनारे बसे श्री क्षेत्र हवनुर में था, महाराष्ट्र
से वहाँ जाते समय धारवाड़ जिले के अंतर्गत हवेरी नामक स्टेशन लगता है. धारवाड़ जिले में उस समय अधिकांशतः: कन्नड़ लोग
रहते थे और मराठी जानने वाले तो ढूंढे नहीं मिलते थे.
स्वामीजी के दर्शन के
लिए एक मराठी लोगों का एक जत्था
महाराष्ट्र से निकलता है. उन
लोगो के साथ सबसे बड़ी समस्या थी
भाषा की, किसी से कुछ भी पूछने पर कन्नड़ भाषा में न समझ में आने वाला उत्तर मिलता था.
तभी हवेरी स्टेशन पर नियुक्त एक महाराष्ट्रीयन
स्टेशन मास्टर उन लोगों के पास स्वयं आकर कहते है :- “श्री के दर्शन के लिए जा रहे
है क्या?”
हाँ, ऐसा उत्तर मिलने
पर स्टेशन मास्टर साहब कहते है :- “ आइये, मेरे निवास पर अपना मुक्काम कीजिये, सबके
स्नान व भोजन की भी व्यवस्था हो जायेगी. स्वामी महाराज यहाँ से लगभग २५ मील दूर
ठहरे हुवे है, आप भोजन के उपरांत थोडा विश्राम करके वहाँ जाइएगा.”
सभी लोग सविनय स्टेशन
मास्टर साहब का प्रस्ताव स्वीकार कर लेते है. भोजन के पश्चात स्टेशन
मास्टर साहब उन सबके लिए एक बैलगाडी की व्यवस्था करवा देते है और गाड़ी वाले को
मार्ग भी अच्छी तरह समझा देते है.
जाते समय स्टेशन
मास्टर साहब उन लोगो सें रुधे हुवे कंठ से कहते है- “आप लोग कितने भाग्यवान जो इतने
दूर से आकर भी स्वामी दर्शन का लाभ लोगे और मैं इतने पास होकर भी नौकरी की
परतंत्रता के कारण स्वामी दर्शन को नहीं जा पा रहा हु, अब
तो चातुर्मास भी समाप्त होने को आया है, लगता है मेरे भाग्य में स्वामीजी के दर्शन
नहीं है.”
उस जत्थे को भी स्टेशन
मास्टर की विवशता देखकर दुःख होता है, वे लोग स्टेशन मास्टर साहब के आभार मानकर स्वामीजी के दर्शन
के लिए आगे निकल पड़ते है. श्री स्वामी के दर्शन के बाद सब लोग अपने-अपने कार्यों में
व्यस्त हो जाते है.
रोज भजन, पुजन व
कीर्तन इत्यादि में सबका समय सुखमय रूप से व्यतीत हो रहा था. अनंत चतुर्दशी के
दिन की पूजा के बाद वे लोग देखते है तो क्या, स्टेशन मास्टर साहब अपने हाथ जोड़े
हुवे श्री महाराज के सामने खड़े हुवे है.
स्वामीजी की रीत कुछ
ऐसी थी कि कोई भी जब सादर उन्हें कुछ अर्पण करता था तब वे
उस अर्पित वस्तु को ‘नारायण’ ऐसा नामोच्चार करके भेट कर्ता को प्रसाद के रूप
में लौटा देते थे.
पर स्टेशन मास्टर साहब स्वामीजी के दर्शन के वास्ते
रिक्त-हस्तो से पर अत्यंत दृढ़-भक्ति भाव लेकर आये थे.
स्वामीजी अपने एक
शिष्य से भगवान की पेटी में रखे कुछ रुपये, एक धोती की जोडी और
एक श्रीफल (नारियल) स्टेशन मास्टर साहब को प्रदान करवाते है और स्मित हास्य करके
कहते है:-“ अरे जब आपने छुट्टी के लिए अर्जी लगाईं थी तभी अगर हम छुट्टियाँ मंजूर करवा देते तो हमारे इन भक्तों
की इस कन्नड़ भाषी स्थान पर इतनी उत्तम व सुविधाजनक व्यवस्था कैसे होती ? दत्त प्रभु ने इन
सबकी उत्तम व्यवस्था भी करवा दी और आपकी भी मनोकामना पूरी करवा दी.”
स्टेशन मास्टर साहब
स्वामीजी के सामने श्रद्धा से नतमस्तक हो जाते है और उस जत्थे के सब लोग भी
भाव-विभोर हो जाते है.
हम जब एक कदम ईश्वर की
और बढ़ाते है तब वह अनेक कदम चलकर हमारे पास आता है और अपने व भक्त के बीच में आने
वाली अड़चनों को दूर करता है. अनेक नर्मदा-परिक्रमा करने वाले भक्तों ने इस कथन को
साक्षात अनुभव करा है. सद्गुरु भी कोई अलग न होकर ईश्वर का ही व्यक्त स्वरूप होता
है.
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