Sunday, January 28, 2018

३४ कट्टरता और विवेकधर्मिता

एक बार एक आर्य-समाजी व्यक्ति व्यर्थ ही टेम्बे स्वामी से वाद विवाद करने चला आता है, उसकी वेद्विक व आध्यात्मिक पात्रता न होने के कारण श्री स्वामी मौन धारण कर लेते है.
स्वामीजी के मौन से चिडकर वह आर्य-समाजी व्यक्ति उलटे-सीधे बोल बोलने लगता है. इस पर श्री स्वामी शांतिपूर्वक उससे कहते है, “अगर हम पर आपका इतना ही रोष है तो आप हमारी पिटाई करके अपना चित्त शांत कर लीजिये.”
इस पर वह अल्पबुद्धि आर्य-समाजी सच में ही श्री स्वामी पर हात उठाने आगे बढ़ जाता है, पर दत्तप्रभु की प्रेरणा से यह विवाद देख रही एक महिला जोर-जोर से चिल्लाकर अपना विरोध प्रकट  करती है.
उस महिला की आवाज सुनकर और भी शिष्य व भक्तजन आकर अपनी खबर ले लेंगे इस डर से वह आर्य-समाजी भाग खड़ा होता है.

३३ हर हर नर्मदे


हिमालय में अपना दो वर्षों का अज्ञातवास व्यतीत करके टेम्बे स्वामी ब्रह्मावर्त पहुंचे. उस समय नर्मदा माता को भी लगा जैसे स्वामीजी गंगा किनारे वास कर रहे है वैसे ही वे उनके तट पर भी आकर वास करें.

तीर्थी कुर्वन्ति तीर्थानि स्वान्त: स्थेन गदाभृता

शास्त्र के इस वचन के अनुसार स्वामीजी उस कोटि के संत थे जो अपने ह्रदय में व्याप्त परमात्मा के कारण तीर्थों को भी पवित्र बनाते है.
गंगाजी ने  भी पृथ्वी पर आने से पहले राजा भगीरथ से प्रश्न करा था कि गंगा स्नान करने वाले लोगों के धुले हुवे पापों को वे कहाँ जाकर धो पायेगी ?
इस पर भगीरथ ने उत्तर दिया था :-

साधवो न्यासिनः शान्ता ब्रह्मिष्ठा लोकपावनाः
हरन्ति अघं ते अंगसंगात् तेष्वास्ते ह्यघभित् हरिः ||

शांत स्वरुपवाले, ब्रह्मनिष्ठ और लोगों को पवित्र करने वाले साधु सन्यासी अपने अंग स्पर्श से तुम्हारे पाप नष्ट कर देंगे क्योंकि उन लोगों में पाप का विनाश करने वाले भगवान बसते है.

३२ मर्म का महत्त्व

श्री टेम्बे स्वामी से वेदांत श्रवण करने का महाभाग्य जिन महानुभावों को मिला उनमें बड़ोदा के राम शास्त्री प्रभाकर का नाम प्रमुखता से लिया जाता है. शास्त्रीजी अध्ययन हेतु अपने मामा के यहाँ शिनोर में रहते थे. वे सिर्फ १८ वर्ष के ही थे जब प्लेग के कार उनके पिताश्री की मृत्यु हो जाती है.
पिताजी का साया उठ जाने से शास्त्रीजी बहुत ही निराश हो जाते है और इस कार से वे गृह त्याग करने का मानस बना लेते है.
तभी उनके स्वप्न में एक सन्यासी आकर उनसे कहते है, “ अरे, आप अगर वन में चले जायेंगे तो आपकी माँ कितने दुखो को प्राप्त होगी ? इस बात का विचार भी किया है या नहीं ?
जब कर्दम ऋषि वन में गए थे तब उनके पुत्र कपिल मुनि भी अपनी माँ को त्याग कर वन में नहीं गए वरन उन्होंने अपनी माँ को अध्यात्म उपदेश देकर शोक रहित किया.
संन्यासी जी आगे कहते है, “मात्रे अध्यात्मनिवेदनम्  (माता को अध्यात्म निवेदन किया)

31 सद्गुरु कृपा का महत्त्व


टेम्बे स्वामी के योगमार्गी शिष्यों में एक प्रमुख शिष्य श्री गांडा महाराज (.पू. श्री योगानंद सरस्वती ) थे, तेलंगपुर के ये गुजराती ब्राह्मण बचपन से ही विरक्त स्वभाव के थे और सद्गुरु की खोज में नर्मदाजी के किनारोंपर भटक रहे थे. यद्यपि उनका बाल विवाह हुवा था फिर भी गृह त्याग कर सद्गुरु की खोज में भटकने के कारण उन्हें लोग ब्रह्मचारी कहते थे.
एक ब्राह्मण सद्गुरु मिले ऐसी उनकीमनोकामना थी.
नर्मदाजी के तट पर वास करने वाले पांडुरंग महाराज नामक एक सत्पुरुष की आज्ञा से वे नेमावर -जो की माँ नर्मदा का नाभि स्थलहै- में जप-अनुष्ठान करने लगे थे.
इसी दौरान श्री स्वामी की कीर्ति उनके कानों में पड़ती है और वे टेम्बे स्वामी से मिलने शिनोर चले आते है.
उनके आने से पहले ही अंतर्ज्ञानी टेम्बे स्वामी रामशास्त्रीजी से कहते है,” जल्दी ही यहाँ एक भटकने वालाअक्षर शत्रुव्यक्ति आने वाला है. ”
गांडा महाराज के आने पर तो ८ दिनों तक श्री स्वामी बात तक नहीं करते है, परगांडा महाराज भी अपनी धुन के पक्के थे.

३० निर्गुण भक्ति और सगुण भक्ति

सदियों से ईश्वर प्राप्ति के लिए निर्गुण भक्ति वसगुण भक्ति के उपासकों में मतभेद रहा है, ये दोनों मार्ग ईश्वर की तरफ ही लेजाते है पर इनके साधक अपने-अपनेमार्ग को ही विशेष बतलाते है.
अगर एक पतिव्रता नारी जिसका पति परदेश गया है, वह अपने पति के फोटो को अपने माथे  से लगाकर नमन करती है तो वह असल में किसे नमन करती है? वह फोटो तो उसके पति नहीं है क्योंकि पति तो परदेश में है; अगर वह फोटोतोएक कागज है तो फिर वही कागज क्यों ? घर में अन्य कागजों की रद्दी क्या कम होती है ?
इसका सरल उत्तर यह है कि वह फोटो उस महिला के ह्रदय में उसके पति के प्रति उत्कट भाव जगाते है, जिसे अन्य कागज नहीं जगा सकते है. इस तरह फोटो तो सिर्फ एक साधन होता है, वह महिला भक्ति तो अपने पति की ही करती है.

२९ कर्ममार्ग का महत्त्व


टेंबे स्वामी कर्ममार्ग के प्रवर्तक थे. कर्ममार्ग के यथायोग्य पालन से मन व इन्द्रियों को संयमित किया जाता है, जिसके फलस्वरूप मनुष्य कीकामनाये नियंत्रित होकर व्यवसाय-आत्मिका बुद्धि (परम तत्व ईश्वर की ओर ले जाने वाली बुद्धि ) जागृत होती है और मनुष्य अध्यात्मिक उन्नति की राह पर चलने लगता है. सरल भाषा में इसे कहा जाए तो अपने धर्म का पालन करना ही अपेक्षित कर्म होता है. यहाँ धर्म से तात्पर्य मजहब या रिलिजन नहीं है, क्योंकि जब गीता कही गई थी तब भारतवर्ष में सिर्फ सनातन धर्म ही था. यहाँ धर्म से तात्पर्य वर्णाश्रम धर्म से है, अपने-अपने वर्ण (ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य व चतुर्थ वर्ण) व आश्रम (ब्रह्मचर्याश्रम, गृहस्थाश्रम, वानप्रस्थाश्रम व सन्यासाश्रम ) के अनुसार शास्त्र विहित कर्म करना ही धर्म का पालन करना है.

२८ गीता के भगवद्-वचन की प्रचिति


प्रसंग १:

नरसी गांव में दोपहर के समय एक महिला किसी कारणवश नदी के तट पर जाती है, तब उसे टेंबे स्वामी अपने गोद में एक ६ महीने के शिशु को लेकर बैठे हुवे दिखते है, वह शिशु अपना अंगूठा चूसते हुवे श्रीस्वामी को प्रसन्नभाव से निहार रहा था और स्वामीजी भी उसे प्रेम पूर्वक दृष्टि से मानोंप्रति उत्तर दे रहे थे;यह देखकर वह महिला भी अपना कार्य भूलकर अचरज भरी दृष्टि से दर्शनलाभ लेती रहती है.
जब श्री स्वामी को उस महिला की उपस्थिति का भान होता है, तब वह शिशु अंतर्धान हो जाता है, वह महिला भी भावावेश से बेसुध हो जाती है.श्री स्वामी उस महिला पर पानी के कुछ छीटे मारकर उसे जागृत करते हैऔर उसे भाग्यवान बताते है क्योंकि उसने साक्षात दत्त प्रभु के दर्शन सहज ही कर लिए थे.
ग्वालियर के पास छाबड़ा नामक गाँवके राम मंदिर में प.पु, नाना महाराज ने भी ऐसे ही सहजता से राम,लक्ष्मण और जानकी को मंदिर के पुजारी के साथ गुल्ली-डंडा खेलते हुवे देखा था.

प्रसंग २:

२७ विद्रोही भक्त पर भी कृपा


हमारे समाज में अनेक व्यक्ति धर्मगुरु बनकर समाज में अपना वर्चस्व स्थापित कर सुख-सुविधा युक्त अत्यंतसम्मानजनक जीवन व्यतीत करना चाहते है, इन लोगों की आध्यात्मिक उन्नति शून्य होती है पर ये अपने दिखावे से समाज को अपनी झूठीश्रेष्ठता का आभास करवाते है और मौका मिलने अपनेस्वार्थ पूर्ति के लिए पर समाजके लोगों का शोषण करने से भी नहीं चुकते है ; ऐसे ही लोगोंको भोंदू बाबा कहा जाता है.
ये भोंदू बाबाबड़े लम्बे समय से संतों व सज्जनों को परेशान करते आये है, चाहे संत तुकाराम को परेशान करने वाले मंबाजी हो या आदि शंकराचार्यपर अभिचार प्रयोग करने  वाला अभिनव गुप्त, आजकल जहां देखो ऐसे भोंदू बाबाओं की कमी नहीं है.

२६ प्रेतबाधा से मुक्ति


इंदौर शहर में दाजी देशपांडे नाम के एक सज्जन रहते थे. उनके दो पुत्र  थे. पर उनकी पत्नी को ब्राह्य बाधा अर्थात कुछ प्रेतादि आत्माओंका साया पडगया था. आज का चिकित्सा विज्ञान न तो इन बातों को मानता हैऔर नहीं उसके पास इन समस्याओं का कोई इलाज है, पर डिस्कवरी जैसी वाहिनियो ने भी अपने कार्यक्रमों में ऐसी शक्तियों को नकारा नहीं है.
अगर कोई श्रीक्षेत्र गाणगापुर,जो कि ब्राह्यबाधा निवारण करने का सर्वोच्च स्थान है-जाकर देखता है तो उसे सहज ही इन शक्तियों के अस्तित्व पर विश्वास करना ही पड़ेगा.अगर सामान्य आदमी थोडा सा भी गिर जाता है तो उसे चोट लग जाती है, कभी-कभी हड्डीया तक चटक जाती है, खरोंचे लगती है, रक्त की धारायें बहना शुरू हो जाती है; पर वहाँ गाणगापुर में ब्राह्यबाधा से पीड़ित व्यक्ति जोर-जोर से अपन सर जमींन पर पटकते है, उँचाई से नीचे कूदते है, और भी न जाने क्या-क्या करते है, पर उन्हें जरासी भी चोट नहीं लगती है, उनके खून का एक क़तरा तक नहीं बहता है, हड्डीया चटकना तो दूर की बात होती है.
ये ब्राह्य शक्तिया अपने पिछले जन्मो के लेन-देन और प्रतिशोध की भावना से ही कुछ पूर्व-संबधित व्यक्तियों को पीड़ित करती है.

२५ भक्ति का वाहन और चालक सतगुरु


श्रीस्वामी की आज्ञा से नाना महाराज अनेक तीर्थयात्रा  करते है, उनका मन श्रीस्वामी के चरणों के दर्शन के लिए लालायित हो उठता था पर गुरु की आज्ञा के बिना यह संभव नहीं था. श्रीस्वामी के समाधि लेने के बाद नाना महाराज खिन्न हो उठते है, उन्हें  श्रीस्वामी के दर्शन से वंचित रह जाने का अपार दुःख होता है.
आखिर श्रीस्वामी के समाधि लेने के कुछ वर्षों बाद उन्हें आखिरसद्गुरु की पुण्यतिथि के निमित्त गरुडेश्वर आने की आज्ञा मिल ही जाती है. इसके लिए वे इंदौर आकर अपने गुरु बंधु श्रीताम्बे स्वामी के यहाँ उतरते है. ताम्बे स्वामी उनका यथा योग्य स्वागत करते है. दोनों गुरु बंधु प्रसन्न भाव से भजनादि में इतना रम जाते है कि इंदौर स्थानक से उनकी रेलगाड़ी छूट जाती है.