Sunday, December 31, 2017

7 जब आधि (मानसिक विकार व रोग ) में न काम आये चिकित्सा तब वहाँ चाहिए आध्यात्मिक उपासना

मुंबई के एक स्नातक व्यक्ति अच्छी सरकारी नौकरी में थे, उनके दिन बड़े मजे में कट रहे थे, पर अचानक वे बीमार पड जाते है.
यह इसवी सन १९११ की घटना है. मित्रों ने सलाह दी कि पुणे की आबोहवा अच्छी है, वहाँ जाकर आपका स्वास्थ्य सुधर जायेगा.
फिर क्या वह सज्जन परिवार सहित पुणे आ गए और उन्हें शनिवार पेठ में एक आरामदेह भवन उन्हें रहवास करने के लिए मिल गया. पुणे में आकर उनका स्वास्थ्य तो  ठीक हो गया पर उन्हें हर पल मृत्यु के समीप आने का आभास होता था, मृत्यु के भय से वे सदा ग्रसित रहते थे, वे अकसर “ मैं मर जाऊंगा.... मैं मर जाऊंगा....”  ऐसा बोलते रहते थे. उनकी ऐसी बाते सुनकर उनके घरवाले अत्यंत चिंतित हो जाया करते थे. डाक्टर भी आकर स्वास्थ्य-परीक्षण कर के जाते थे पर कोई भी रोग उनकी पकड़ में नहीं आता था. उनके पड़ोस के घर में दत्त-उपासना की रीत थी, इन बीमार सज्जन के कानों पर भी करुणा-त्रिपदी के शब्द पड़ते है. शब्द सुनते ही यह सज्जन तरो-ताज़ा महसूस करने लगते है.

6 अन्नपूर्णा सिद्धि

हावेरी स्टेशन से बैलगाड़ी में बैठकर कुछ लोग सद्गुरु दर्शन के लिए श्री क्षेत्र हवनुर जा रहे थे. इस जत्थे के साथ एक सुहागन स्त्री भी पैदल-पैदल चल रही थी, जत्थे के लोगों ने उसे बैलगाड़ी में बैठने की विनती करी तो वह थोड़ी देर के लिए बैलगाडी में बैठ जाती  और उतरकर फिर पैदल चलने लगती, यह क्रम अनेक बार दोहराया गया. कुछ समय बाद उन लोगो की गाडी के सामने दो किशोर ब्रह्मचारी आ कर खड़े हो जाते है. ब्रह्मचारीद्वय विनम्रतापुर्वक  आग्रह करते है :-“ यहाँ हमारे गुरु का आश्रम है और आप सब को भोजन-प्रसादी ग्रहण कर के ही आगे जाना है.”

5 हर पल सद्गुरु को रहता है अपने भक्तों का ध्यान

 उस समय स्वामीजी का एक चातुर्मास तुंगभद्रा नदी के किनारे बसे श्री क्षेत्र हवनुर में था, महाराष्ट्र से वहाँ जाते समय धारवाड़ जिले के अंतर्गत हवेरी नामक स्टेशन लगता है.  धारवाड़ जिले में उस समय अधिकांशतः: कन्नड़ लोग रहते थे और मराठी जानने वाले तो ढूंढे नहीं मिलते थे.
स्वामीजी के दर्शन के लिए एक मराठी लोगों का एक जत्था  महाराष्ट्र से निकलता है. उन लोगो के साथ सबसे बड़ी समस्या थी भाषा की, किसी से कुछ भी पूछने पर कन्नड़ भाषा में न समझ में आने वाला  उत्तर मिलता था.
 तभी हवेरी स्टेशन पर नियुक्त एक महाराष्ट्रीयन स्टेशन मास्टर उन लोगों के पास स्वयं आकर कहते है :- “श्री के दर्शन के लिए जा रहे है क्या?”

4 सद्गुरु को माऊली इसलिए कहा जाता है

मराठी में माता को सम्मानपूर्वक माउली कहा जाता है, औरअपने शिष्यों को माता के समान वात्सल्य देने वाले सद्गुरुओं को भी माउली कहा जाता है. यहाँ कथा नागपुर के एक अमीर सज्जन के यहाँ पुजारी के रूप में कार्य करने वाले एक व्यक्ति की है.  पुजारीजी ने टेंबे स्वामी के बारे में बहुत कुछ सुना था पर उनके दर्शन करने के लिए कहा जाया जाये, इस बात से वह अनभिज्ञ थे. उस समय इंटरनेट तो था नहीं, कोई भी जानकारी पूछ-पूछ कर ही जुटानी पड़ती थी.
पुजारीजी की स्वामी दर्शन की तीव्र इच्छा थी पर स्वामीजी कहा ठहरे हुए है यह पता नहीं चल रहा था. स्वामीजी यति होने के कारण चातुर्मास के सिवाय एक स्थान पर निर्धारित समय से ज्यादा नहीं रुक सकते थे.

3 जाको राखे सद्गुरु

उस समय जब टेंबे स्वामी नृसिंहवाड़ी में आये हुवे थे, तब वहाँ एक वैदिक परिवार की सुहागन स्त्री उनके दर्शन को आती थी. एक दिन उस महिला के मन में विचार आता है कि जहां स्वामीजी विराजमान होते है वहाँ की चरण-धूली को अगर वह अपने गाँव में ले जाकर अपने खेत की बागड़ के चारों ओर भूमि में अनाज की तरह बो देती है तो उसके खेत लहलहा उठेंगे, अच्छी पैदावार भी आएगी.
उस महिला की इच्छानुसार वह स्वर्ण-दिवस आता है जब स्वामीजी मठ में ना बैठकर औदुम्बर के वृक्ष के नीचे बैठकर कुछ लेखन कार्य कर रहे थे, आसपास भक्तों की भी भीड़ भी नहीं थी, वह महिला आगे बढकर स्वामीजी को दंडवत प्रणाम करती है.

२ दत्त संकष्टहरण स्तोत्र (घोरकष्ट उद्धरण स्तोत्र) का माहात्म्य

स्वामीजी का वास नर्मदा तट पर स्थित होलकर संस्थान के अंतर्गत आने वाले चिखलदा नामक स्थान पर था. उस स्थान की एक रहवासी ब्राह्मण कन्या का विवाह इंदौर शहर निवासी एक युवक से हुवा था. शहरी तौर-तरीके से जीने वाले पति को गाँव की यह कन्या पसंद नहीं थी. वह सदा उस कन्या की उपेक्षा किया करता था, अपने पति के इस रुखे व्यवहार से तंग आकर वह कन्या चिखलदा में अपनी माता के पास आकर रहने लगती है.
वह कन्या अपनी माता के साथ श्रीगुरुदर्शन के लिए आया करती थी. वहाँ पर नूतन-विवाहित जोड़ो को एक-साथ गुरु चरणों की पाद्य-पूजा करते देख उसका मन विक्षोभ से भर उठता था, उसे लगता था कि काश वह भी अपने पति के साथ श्री गुरु की इस तरह चरण-वंदना कर पाती तो उसका जन्म कृतार्थ हो जाता, पर वह संकोच वश यह बात किसी से भी कह नहीं पाती थी.

1 ग्रंथराज गुरुचरित्र का महत्त्व

उस समय टेंबे स्वामी का वास गरुडेश्वर में था. वहाँ पर एक ६-शास्त्रों में निपुण विद्वान ब्राह्मण स्वामीजी के सानिध्य में वेद व उपनिषदों पर चर्चा करते थे. संस्कृत ग्रंथों के प्रति उन्हे बड़ा ही आदर था पर प्राकृत भाषा में लिखे ग्रंथों को वे दरकिनार किया करते थे. वहाँ गरुडेश्वर में अनेक भक्तजन दत्त मूर्ति व स्वामीजी के सामने बैठकर प्रासादिक ग्रंथ गुरुचरित्र का पारायण किया करते थे, पर ये ब्राह्मण देवता उन पाठ करने वालों को कमतर आंकते थे, पर उनकी स्वामीजी के सामने कुछ बोलने की हिम्मत भी नहीं होती थी.
अनेक मास बीत जाते है पर ब्राह्मण देवता वे-वेदांत की ही  चर्चा में ही उलझे रहे और उन्हें कभी भी श्रीग्रंथ गुरुचरित्र पढ़ने की इच्छा हुई ही नहीं. स्वामीजी के समाधिस्थ होने के बाद ब्राह्मण देवता का मन गरुडेश्वर में लगता नहीं था क्योंकि अब उनसे  वेद-चर्चा करने के लिए वहाँ पर कोई भी नहीं था, इसलिए वे अपने गाँव लौटकर सपत्नीक निवास करने लगते है.